Wednesday, 17 January 2018

सम्‍पत्ति को लेकर अक्‍सर विवाद सामने आते हैं, सम्‍पत्ति को लेकर पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति-पत्‍िन एवं अन्‍य रक्‍त संबंधियों में आपस में विवाद होने लगता है, जबकि इसके बारे में अधिकतर व्‍यक्तियों को कानूनी जानकारी नहीं होती, मेरा उद्देश्‍य है कि, सभी साधारण जन को इस विषय में कानून की पूरी जानकारी होना चाहिए। ताकि इस संबंध में विवाद से पूर्व ही हम समस्‍या को सुलझा सकें, एवं जानकारी के अभाव में हम किसी व्‍यक्ति द्वारा ठगे न जा सकें, तो आईये हम इस बारे में देखते हैं, कि कोई सम्‍पत्ति कैसे रक्‍त संबंधियों को प्राप्‍त होती है।

जानते हैं स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति के बारे में -
    यदि आप हिन्‍दू पुरूष हैं, और आपने अपनी लगन मेहनत से अर्थात स्‍वयं मेहनत करके कोई सम्‍पत्ति अर्जित की है तो ऐसी सम्‍पत्ति को स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति कहा जायेगा। इसके अतिरिक्‍त वसीयत से प्राप्‍त एवं दान में मिली सम्‍पत्ति भी स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति की श्रेणी में आती है। स्‍व-अर्जित सम्‍पत्ति जिस व्‍यक्ति द्वारा अर्जित की जाती है, उस व्‍यक्ति को अपनी अर्जित की गई सम्‍पत्ति पर सम्‍पूर्ण अधिकार प्राप्‍त होता है, एवं अन्‍य कोई व्‍यक्ति (पुत्र, पुत्री, माता, पिता, भाई, बहन, या अन्‍य कोई भी व्‍यक्ति) आपकी स्‍व-अर्जित सम्‍पत्ति पर किसी प्रकार का अधिकार नहीं जता सकता, और आपके जीवित रहते आपकी मर्जी के बगैर उस सम्‍पत्ति को हासिल भी नहीं कर सकता। ऐसी स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति आप चाहे जिसे वसीयत कर सकते हैं, दान कर सकते हैं, विक्रय कर सकते हैं, बंधक कर सकते हैं, या किसी भी प्रकार से अंतरित कर सकते हैं, अर्थात ऐसी सम्‍पत्ति पर आपको सम्‍पूर्ण अधिकार प्राप्‍त होते हैं। इस मामले में पिछले साल दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा था कि वयस्क बेटे को माता-पिता की कमाई हुई संपत्ति में रहने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा था कि अगर घर माता-पिता का है तो वहां बेटा सिर्फ उनकी दया पर ही रह सकता है, वो भी जब तक पैरंट्स चाहें।
   यदि आप हिन्‍दू महिला हैं तो आपको प्राप्‍त समस्‍त प्रकार की सम्‍पत्ति, अर्थात आपका स्‍त्रीधन, दहेज, दान में प्राप्‍त सम्‍पत्ति, पति अथवा पिता (पैत्रक) से हिस्‍से में प्राप्‍त सम्‍पत्ति, अथवा अन्‍य कोई भी सम्‍पत्ति आपकी स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति मानी जाती है। ऐसी स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति आप चाहे जिसे वसीयत कर सकते हैं, दान कर सकते हैं, विक्रय कर सकते हैं, बंधक कर सकते हैं, या किसी भी प्रकार से अंतरित कर सकते हैं, अर्थात ऐसी सम्‍पत्ति पर आपको सम्‍पूर्ण अधिकार प्राप्‍त होते हैं।

अब बात करते हैं, पैत्रक सम्‍पत्ति के बारे में
पूर्वजों से प्राप्‍त होती चली आ रही सम्‍पत्ति को पैत्रक सम्‍पत्ति कहते हैं, हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार पैत्रक सम्‍पत्ति में पुत्र का जन्‍म से ही हिस्‍सा होता है, इस अधिनियम में सन 2005 में संशौधन हुआ, जिसमें सन 2005 के बाद से पुत्री को भी पैत्रक सम्‍पत्ति में पुत्र की भांति जन्‍म से बराबर का हिस्‍सा दिया जाने लगा है, सन 2005 के बाद अर्थात अधिनियम लागू होने के बाद से पैत्रक सम्‍पत्ति में बहनों को भी अपने भाईयों के साथ बराबर का हिस्‍सा प्राप्‍त है अगर आपको पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने से इनकार कर दिया गया है तो आप विपक्षी पार्टी को एक कानूनी नोटिस भेज सकते हैं। आप अपने हिस्से पर दावा ठोकने के लिए सिविल कोर्ट में मुकदमा भी दायर कर सकते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि मामले के विचाराधीन होने के दौरान प्रॉपर्टी को बेचा न जाए, उसके लिए आप उसी मामले में कोर्ट से रोक लगाने की मांग कर सकते हैं। मामले में अगर आपकी सहमति के बिना ही संपत्ति बेच दी गई है तो आपको उस खरीदार को केस में पार्टी के तौर पर जोड़कर अपने हिस्से का मुकदमा भी दायर कर सकते हैं।

उत्‍तराधिकार के बारे में महत्‍वपूर्ण जानकारी
यदि किसी ऐसे महिला अथवा पुरूष की मृत्‍यु हो जावे जिसने अपने जीवनकाल में कोई वसीयत नहीं की हो तो, उसकी स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति में मृतक व्‍यक्ति की माता, पत्नि (अगर दो या दो अधिक पत्‍िन जीवित हैं तो प्रथम पत्नि) पुत्रियों एवं पुत्रों को समान हिस्‍सा प्राप्‍त होता है। हिंदू कानून के मुताबिक अगर आप एक बिना बंटे हुए हिंदू परिवार के मुखिया हैं तो कानून के तहत आपके पास परिवार की संपत्तियों को मैनेज करने का अधिकार है। लेकिन इससे आपका संपत्ति पर पूरा और इकलौता अधिकार नहीं हो जाता, क्योंकि उस परिवार के हर उत्तराधिकारी का संपत्ति में एक हिस्सा, टाइटल और रुचि है।

हिंदुओं को उत्तराधिकार – Hindu Succession

  • 1-किसी हिंदू की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति उसकी विधवा , बच्चों(लड़के तथा लड़कियां) तथा मां के बीच बराबर बांटी जाती है ।
  • 2-अगर उसके किसी पुत्र की उससे पहले मृत्यु हो गयी हो तो बेटे की विधवा तथा बच्चों को संपत्ति का एक हिस्सा मिलेगा।
  • 3-उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी है कि किसी हिंदू पुरुष द्वारा पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी कर लेने से दूसरी पत्नी को उत्तराधिकार नहीं मिलता है , लेकिन उसके बच्चों का पहली पत्नी के बच्चों की तरह ही अधिकार होता है ।
  • 4-हिंदू महिला की संपत्ति उसके बच्चों (लड़के तथा लड़कियां ) तथा पति को मिलेगी । उससे पहले मरने वाले बेटे के बच्चों को भी बराबर का एक हिस्सा मिलेगा ।
  • 5-अगर किसी हिंदू व्यक्ति के परिवार के नजदीकी सदस्य जीवित नहीं हैं, तो उसकी मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति पाने वाले उत्तराधिकारियों का निश्चित वर्गीकरण होता है ।
एक हिंदू पुरूष के संपत्ति के उत्तराधिकारी उसके निम्नलिखित रिश्तेदार हो सकते है-
पुत्र, पुत्री, विधवा मां, मृतक पुत्र का पुत्र, मृतक पुत्र की पुत्री, मृतक पुत्री के बेटा-बेटी, मृतक बेटे की विधवा, मृतक बेटे के बेटे का बेटा, मृतक बेटे के बेटे की विधवा, मृतक बेटे के मृतक बेटे की बेटी.

मुसलमानों (शिया और सुन्नी) को उत्तराधिकार – 

शिया और सुन्नियों के लिए अलग-अलग नियम हैं। लेकिन निम्नलिखित सामान्य नियम दोनों पर लागू होते हैं
  • 1-अंतिम संस्कार के खर्च और ऋणों के भुगतान के बाद बची संपत्ति का केवल एक तिहाई वसीयत के रुप में दिया जा सकता है ।
  • 2-पुरुष वारिस को महिला वारिस से दोगुना हिस्सा मिलता है ।
  • 3-वंश-परंपरा में (जैसे पुत्र-पोता) नजदीकी रिश्ते (पुत्र) के होने पर दूर के रिश्ते (पोते) को हिस्सा नहीं मिलता है ।

ईसाइयों को उत्तराधिकार – Christian Succession 

भारतीय ईसाइयों को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति का निर्धारण उत्तराधिकार कानून के तहत होता है । विशेष विवाह कानून के तहत विवाह करने वाले तथा भारत में रहने वाले यूरोपीय, एंग्लो इंडियन तथा यहूदी भी इसी कानून के तहत आते हैं ।
  • 1-विधवा को एक तिहाई संपत्ति पाने का हक है । बाकी दो तिहाई मृतक की सीधी वंश परंपरा के उत्तराधिकारियों को मिलता है।
  • 2-बेटे और बेटियों को बराबर का हिस्सा मिलता है ।
  • 3-पिता की मृत्यु से पहले मर जाने वाले बेटे की संतानों को उसे बेटे का हिस्सा मिल जाता है ।
  • 4-अगर केवल विधवा जीवित हो तो उसे आधी संपत्ति मिलती है  और आधी मृतक के पिता को मिल जाती है ।
  • 5-अगर पिता जिंदा ना हो तो यह हिस्सा मां, भाइयों तथा बहनों को मिल जाता है ।
  • 6-किसी महिला की संपत्ति का भी इसी तरह बंटवारा होता है

पारसियों को उत्तराधिकार – Parsi Succession


  • 1-पारसियों में पुरुष की संपत्ति उसकी विधवा , बच्चों तथा माता-पिता में बंटती है ।
  • 2-लड़के तथा विधवा को लड़की से दोगुना हिस्सा मिलता है ।
  • 3-पिता को पोते के हिस्से का आधा तथा माता को पोती के हिस्से का आधा मिलता है ।
  • 4-किसी महिला की संपत्ति उसके पति और बच्चों में बराबर-बराबर बंटती हिस्सों में बंटती है ।
  • 5-पति की संपत्ति के बंटवारे के समय उसमें पत्नी की निजी संपत्ति नहीं जोड़ी जाती है ।
  • 6-पत्नी को अपनी संपत्ति पर पूरा अधिकार है । उसकी संपत्ति में उसकी आय, निजी साज-सामान तथा विवाह के समय मिले उपहार शामिल हैं ।
  • 7-शादी के समय दुल्हन को मिले उपहार और भेंट स्त्रीधन के तहत आते हैं ।
  • 8-उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में स्पष्ट किया है कि हिंदू विवाह कानून की धारा 27 के तहत स्त्रीधन पर पूर्ण अधिकार पत्नी का होता है और उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है ।

अधिनियम का लागू होना -
(1) यह अधिनियम लागू है -
(क) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो हिन्दू धर्म के किसी भी रूप या विकास के अनुसार, जिसके अन्तर्गत वीरशैव, लिंगायत अथवा ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज या आर्य समाज के अनुयायी भी आते हैं, धर्मत: हिन्दू हो;
(ख) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो धर्मत: बौद्ध, जैन या सिक्ख हो; तथा
(ग) ऐसे किसी भी अन्य व्यक्ति को जो धर्मत: मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी या यहूदी न हो, जब तक कि यह साबित न कर दिया जाय कि यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो ऐसा कोई भी व्यक्ति एतस्मिन् उपबन्धित किसी भी बात के बारे में हिन्दू विधि या उस विधि के भाग-रूप किसी रूढ़ि या प्रथा द्वारा शासित न होता।
स्पष्टीकरण-
निम्नलिखित व्यक्ति धर्मत: यथास्थिति, हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख है:-
(क) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता दोनों ही धर्मत: हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हों;
(ख) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता में से कोई एक धर्मत: हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हो और जो उस जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के सदस्य के रूप में पला हो जिसका वह माता या पिता सदस्य है या था; 
(ग) कोई भी ऐसा व्यक्ति जो हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख धर्म में संपरिवर्तित या प्रतिसंपरिवर्तित हो गया हो।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट कोई भी बात किसी ऐसी जनजाति के सदस्यों को, जो संविधान के अनुच्छेद 366 के खण्ड (25) के अर्थ के अन्तर्गत अनुसूचित जनजाति हो, लागू न होगी जब तक कि केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अन्यथा निर्दिष्ट न कर दे।
(3) इस अधिनियम के किसी भी प्रभाग में आए हुए 'हिन्दू' पद का ऐसा अर्थ लगाया जाएगा मानों  उसके अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति आता हो जो यद्यपि धर्मत: हिन्दू नहीं है तथापि ऐसा व्यक्ति है जिसे यह अधिनियम इस धारा में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के आधार पर लागू होता है।

(1) इस अधिनियम में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो
(क) 'गोत्रज 'एक व्यक्ति दूसरे का 'गोत्रज' कहा जाता है यदि वे दोनों केवल पुरुषों के माध्यम से रत या दत्तक द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित हों,
(ख) ‘आलियसन्तान विधि ”से वह विधि-पद्धति अभिप्रेत है जो ऐसे व्यक्ति को लागू है जो यदि यह अधिनियम पारित न किया गया हो तो मद्रास अलियसन्तान ऐक्ट, 1949 (मद्रास ऐक्ट 1949 का 9) द्वारा या रूढ़िगत अलियसन्तान विधि द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होता जिनके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है;
(ग) ‘बन्धु' एक व्यक्ति दूसरे का 'बन्धु" कहा जाता है यदि वे दोनों रक्त या दत्तक द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित हों किन्तु केवल पुरुषों के माध्यम से नहीं,
(घ) ‘रूढ़ि ' और "प्रथा" पद ऐसे किसी भी नियम का संज्ञान कराते हैं जिसने दीर्घकाल तक निरन्तर और एकरूपता से अनुपालित किए जाने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के हिन्दुओं में विधि का बल अभिप्राप्त कर लिया हो :
परन्तु यह तब जब कि नियम निश्चित हो और अयुक्तियुक्त या लोक नीति के विरुद्ध न हो :
तथा परन्तु यह और भी कि ऐसे नियम की दशा में जो एक कुटुम्ब को ही लागू हो, उसकी निरन्तरता उस कुटुम्ब द्वारा बन्द न कर दी गई हो;
(ड०) "पूर्णरक्त", "अर्धरक्त" और "एकोदररक्त" - 
  (i) कोई भी दो व्यक्ति एक-दूसरे से पूर्ण रक्त द्वारा सम्बन्धित कहे जाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से उसकी एक ही पत्नी द्वारा अवजनित हुए हों, और अर्धरक्त द्वारा  सम्बन्धित कहे जाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों द्वारा अवजनित हुए हों,
 (ii) दो व्यक्ति एक-दूसरे से एकोदररक्त  द्वारा सम्बन्धित कहे जाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु उसके भिन्न पतियों से अवजनित हुए हों,
स्पष्टीकरण - इस खण्ड में "पूर्वज" पद के अन्तर्गत पिता आता है और "पूर्वजा" के अन्तर्गत माता आती है;
(च) ‘वारिस ” से ऐसा कोई भी व्यक्ति अभिप्रेत है चाहे वह पुरुष हो, या नारी, जो निर्वसीयत की सम्पति का उत्तराधिकारी होने का इस अधिनियम के अधीन हकदार है;
(छ) "निर्वसीयत" कोई  व्यक्ति चाहे पुरुष हो या नारी, जिसने किसी सम्पति के बारे में ऐसा वसीयती व्ययन न किया हो जो प्रभावशील होने योग्य हो, वह उस सम्पति के विषय में निर्वसीयत मरा समझा जाता है; 
(ज) ‘मरुमक्कतायम विधि” से विधि की वह पद्धति अभिप्रेत है जो उन व्यक्तियों को लागू है
  (क) जो यदि यह अधिनियम पारित न हुआ होता तो मद्रास मरुमक्कत्तायम ऐक्ट, 1932 (मद्रास अधिनियम 1933 का 22), ट्रावन्कोर नायर ऐक्ट (1100-के का 2), ट्रावन्कोर ईषवा ऐक्ट (1100-के का 3), ट्रावन्कोर नान्जिनाड वेल्लाल ऐक्ट (1101-के का 6), ट्रावन्कोर क्षेत्रीय ऐक्ट (1108-के का 7), ट्रावन्कोर कृष्णवका मरुमक्कतायी ऐक्ट (1115-के का 7), कोचीन मरुमक्कतायम् ऐक्ट (1113-के का 33), या कोचीन नायर ऐक्ट (1113-के का 29) द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होते जिनके लिए इस अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है; अथवा
  (ख) जो ऐसे समुदाय के हैं जिसके सदस्य अधिकतर तिरुवांकुर कोचीन या मद्रास राज्य में, जैसा कि वह पहली नवम्बर, 1956 के अव्यवहित पूर्व अस्तित्व में था, अधिवासी हैं और यदि यह अधिनियम पारित न हुआ होता तो जो उन विषयों के बारे में जिनके लिए इस अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है विरासत की ऐसी पद्धति द्वारा शासित होते जिसमें नारी परम्परा के माध्यम से अवजनन गिना जाता है;
किन्तु इसके अन्तर्गत अलियसन्तान विधि नहीं आती;
(झ) ‘नंबूदिरी विधि” से विधि की वह पद्धति अभिप्रेत है जो उन व्यक्तियों को लागू है जो यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मद्रास नंबूदिरी ऐक्ट, 1932 (मद्रास अधिनियम 1933 का 21), कोचीन नम्बूदिरी ऐक्ट (1113-के का 17), या ट्रावन्कोर मलायल्ल ब्राह्मण ऐक्ट (1106-के का 3), द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होते जिनके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है;
(ज) ‘सम्बन्धित 'से अभिप्रेत है, धर्मज द्वारा सम्बन्धित :
परन्तु अधर्मज अपत्य अपनी माता से परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित समझे जाएंगे और उनके धर्मज वंशज उनसे और परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित समझे जाएंगे और किसी भी ऐसे शब्द का जो सम्बन्ध को अभिव्यक्त करे या संबंधी को घोषित करे तदनुसार अर्थ लगाया जायगा।
(2) इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, पुल्लिंग संकेत करने वाले शब्दों के अन्तर्गत नारियां न समझी जाएंगी।
अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव —
(1) इस अधिनियम में अभिव्यक्ततः उपबन्धित के सिवाय— 
(क) हिन्दू विधि का कोई ऐसा शास्त्र-वाक्य, नियम या निर्वचन या उस विधि की भागरूप कोई भी रूढ़ि या प्रथा, जो इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त रही हो, ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जिसके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है, प्रभावहीन हो जाएगी,
(ख) इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त किसी भी अन्य विधि का हिन्दुओं को लागू होना वहाँ तक बन्द हो जाएगा जहां तक कि वह इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट उपबन्धों में से किसी से भी असंगत हो।
अधिनियम का कुछ सम्पत्तियों को लागू न होना -  यह अधिनियम निम्नलिखित को लागू न होगा — 
(i) ऐसी किसी सम्पत्ति की जिसके लिए उत्तराधिकार, विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (1954 का 43) की धारा 21 में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के कारण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) द्वारा विनियमित होता है;
(ii) ऐसी किसी सम्पदा को जो किसी देशी राज्य के शासक द्वारा भारत सरकार से की गई किसी प्रसंविदा या करार के निबन्धनों द्वारा इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व पारित किसी अधिनियमिति के निबन्धनों द्वारा किसी एकल वारिस को अवजनित हुई है;
(iii) वलियम्ग थम्पूरन कोविलागम् सम्पदा और पैलेस फण्ड को जो कि महाराजा कोचीन द्वारा 29 जून, 1949 को प्रख्यापित उद्घोषणा (1124-के का 9) द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर पैलेस एडमिनिस्ट्रेिशन बोर्ड द्वारा प्रशासित है। 
सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन -
(1) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ पर और से, मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में, सहदायिक की पुत्री —
(क) जन्म से उसी ढंग में अपने अधिकार में सहदायिक होगी, जैसे पुत्र,
(ख) को सहदायिकी सम्पति में वही अधिकार होगा, जैसा उसे होता, यदि वह पुत्र होता,
(ग) उक्त सहदायिकी सम्पति के सम्बन्ध में उन्हीं दायित्वों के अध्यधीन होगी, जैसे पुत्र का दायित्व है।
और हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का कोई निदेश सहदायिक की पुत्री के निर्देश को शामिल करने वाल माना जायेगा :
परन्तु इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई चीज सम्पति के किसी विभाजन या वसीयती विन्यास को, जो दिसम्बर, 2004 के 20वें दिन के पूर्व किया गया है, शामिल करके किसी विन्यास या अन्य संक्रमण को प्रभावित नहीं करेगी या अविधिमान्य नहीं बनायेगी।
(2) कोई सम्पति, जिसमें महिला हिन्दू उपधारा (1) के परिणामस्वरूप हकदार होती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की घटना के साथ धारण की जायेगी और इस अधिनियम या तत्समय प्रवर्तित किस अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी चीज के होते हुये भी वसीयती विन्यास द्वारा उसके द्वारा व्ययन करने योग्र सम्पति मानी जायेगी।
(3) जहाँ हिन्दू की मृत्यु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के बाद होती है वहाँ मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में उसका हित इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निवसीयती उत्तराधिकार द्वारा, यथास्थिति, निगमित होगा औ उत्तरजीविता के द्वारा नहीं; और सहदायिकी सम्पति विभाजित की गयी मानी जायेगी, मानों विभाजन् हुआ था और, -
(क) पुत्री को वही अंश आवंटित किया जाता है, जो पुत्र को आवंटित किया जाता है,
(ख) पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री का अंश, जिसे वे प्राप्त करते, यदि वे विभाजन के समय जीवित् रहते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र के या ऐसे पूर्व मृत पुत्री के उत्तरजीवी सन्तान को आवंटित किय जायेगा, और
(ग) पूर्व मृत पुत्र के या पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत सन्तान का अंश, जिसे ऐसी सन्तान प्राप्त करता, यदि वह विभाजन के समय जीवित रहता या रहती, पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री के, यथास्थिति, के पूर्व मृत सन्तान की सन्तान को आवंटित किया जायेगा।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्तिमें वह अंश समझा जायेगा जो उसे विभाजन में मिलता, यदि उसकी अपनी मृत्यु में अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता इस बात का विचार किये बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के बाद, कोई न्यायालय पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह-प्रपितामह से किसी बकाया ऋण की वसूली के लिये एकमात्र हिन्दू विधि के अधीन पवित्र कर्तव्य के आधार पर किसी ऐसे ऋण का उन्मोचन करने के लिए ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के हिन्दू विधि के अधीन पवित्र आबद्धता के आधार पर कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा :
परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के पूर्व लिये गये किसी ऋण के मामले में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई चीज - 
(क) पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध, यथास्थिति, कार्यवाही करने के लिये किसी लेनदार के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा, या
(ख) किसी ऐसे ऋण के सम्बन्ध में या ऋण की तुष्टि में किये गये किसी अन्य संक्रमण को प्रभावित नहीं करेगा और कोई ऐसा अधिकार या अन्य संक्रमण उसी ढंग में और उसी विस्तार तक पवित्र कर्तव्य के नियम के अधीन प्रवर्तनीय होगा, जैसे यह प्रवर्तनीय होता, मानों हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 प्रवर्तित किया गया है।
स्पष्टीकरण - खण्ड (ख) के प्रयोजनों के लिये अभिव्यक्ति 'पुत्र', 'पौत्र' या 'प्रपौत्र' को पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र को, यथास्थिति निर्दिष्ट करने वाला माना जायेगा, जिसे हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ पूर्व जन्मा था या दत्तक लिया गया था।
(5) इस धारा में अंतर्विष्ट कोई चीज उस विभाजन को लागू नहीं होगी, जो दिसम्बर, 2004 के 20वें दिन के पूर्व हुआ था।
स्पष्टीकरण - इस धारा के प्रयोजनों के लिये 'विभाजन' से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के अधीन सम्यक् से पंजीकृत विभाजन विलेख के निष्पादन द्वारा किया गया कोई विभाजन, न्यायालय के डिक्री द्वारा किया गया विभाजन अभिप्रेत है।]
7. तरवाड, तावषि, कुटुम्ब, कबरु या इल्लम की सम्पत्ति में हित का न्यागमन -
(1) जबकि कोई हिन्दू जिसे यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कत्तायम् या नंबूदिरी विधि लागू होती इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय, यथास्थिति, तरवाड, तावषि या इल्लम् की सम्पति में हित रखते हुए मरे तब सम्पत्ति में उसका हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती या निर्वसीयती उतराधिकार द्वारा न्यागत होगा, मरुमक्कत्तायम् या नंबूदिरी विधि के अनुसार नहीं।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजन के लिए तरवाड, तावषि या इल्लम् की सम्पति में हिन्दू का हित, यथास्थिति, तरवाड, तावषि या इल्लम् की सम्पत्ति में वह अंश समझा जाएगा जो उसे मिलता यदि उसकी अपनी मृत्यु के अव्यवहित पूर्व, यथास्थिति, तरवाड, तावषि या इल्लम् के उस समय जीवित सब सदस्यों में उस सम्पत्ति का विभाजन व्यक्तिवार हुआ होता, चाहे वह अपने को लागू मरुमक्कतायम् या नंबूदिरी विधि के अधीन ऐसे विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं तथा ऐसा अंश उसे बांट में आत्यंतिकत: दे दिया गया समझा जाएगा।
(2) जबकि कोई हिन्दू, जिसे यदि वह अधिनियम पारित न किया गया होता तो अलियसन्तान विधि लागू होती इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में अविभक्त हित रखते हुए मरे तब सम्पति में उसका अपना हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती, या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा, अलियसन्तान विधि के अनुसार नहीं।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए कुटुम्ब या कवरु की सम्पति में हिन्दू का हित, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरु की सम्पति में अंश समझा जाएगा जो उसे मिलता यदि उसकी अपनी मृत्यु के अव्यवहित पूर्व, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरु के उस समय जीवित सब सदस्यों में उस सम्पति का विभाजन व्यक्तिवार हुआ होता, चाहे वह अलियसन्तान विधि के अधीन ऐसे विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं तथा ऐसा अंश उसे बाँट में आत्यंतिकत: दे दिया गया समझा जाएगा।
(3) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी जबकि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् कोई स्थानम्दार मरे तब उसके द्वारा धारित स्थानम् सम्पत्ति उस कुटुम्ब के सदस्यों की जिसका वह स्थानम्दार है और स्थानम्दार के वारिसों को ऐसे न्यागत होगी मानो स्थानम् सम्पत्ति स्थानम्दार और उसके उस समय जीवित कुटुम्ब के सब सदस्यों के बीच स्थानम्दार की मृत्यु के अव्यवहित पूर्व व्यक्तिवार तौर पर विभाजित कर दी गई थी और स्थानम्दार के कुटुम्ब के सदस्यों और स्थानम्दार के वारिसों को जो अंश मिले उन्हें वे अपनी पृथक् सम्पति के तौर पर धारित करेंगे।
स्पष्टीकरण - इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए स्थानम्दार के कुटुम्ब के अन्तर्गत उस कुटुम्ब की, चाहे विभक्त हो या अविभक्त, हर वह शाखा आएगी जिसके पुरुष सदस्य यदि अधिनियम पारित न किया गया होता तो किसी रूढ़ि या प्रथा के आधार पर स्थानम्दार के पद पर उत्तरवर्ती होने के हकदार होते। 

शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
मोबाईल नम्‍बर 09479836178

Monday, 8 January 2018

भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता  सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति माघशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

भारत का संविधान शांतिकाल में संघात्मक है तो संकटकाल में यह एकात्मक रूप धारण कर लेता है| भारत का संविधान, भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। यह दिन (26 नवम्बर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। 11 दिसंबर 1946 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। डॉ भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति ने संविधान का निर्माण अंतिम रूप से किया। 26 नवंबर 1949 को संविधान अंगीकृत, अधिनिमित हुआ। 26 जनवरी 1950 से संविधान लागू हुआ। भारत इसी दिन से गणतंत्र बना। मूल संविधान में 22 भाग, 8 अनुसूचियाँ तथा 395 अनुच्छेद थे। वर्तमान में इसमें 12 अनुसूचियाँ हैं। भारतीय संविधान का दो तिहाई भाग भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है।



भारत का संविधान भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा लोकतंत्रात्मक गणराज्य स्थापित करता है| संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न शब्द से इस बात का बोध होता है कि भारत अपने आंतरिक और बाह्य मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र है वही समाजवादी शब्द ऐसे शासन व्यवस्था को स्थापित करने की बात करता है जिनमें उत्पादन के साधनों का प्रयोग सामाजिक हित में किया जा सके और आर्थिक शोषण का अंत करके हर व्यक्ति को जीवकोपार्जन (Livlihood)की सुविधा दी जा सके|
  • भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है लेकिन अनुच्छेद के आधार पर यूगोस्लाविया का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है|
  • भारतीय संविधान भारत में प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य की स्थापना करता है|
  • प्रभूत्‍व संपन्नता से अर्थ है कि भारत का वह नियंत्रण से सर्वथा मुक्त है तथा अपनी आंतरिक एवं विदेशी नीति को स्वयं निर्धारित करता है|
  • लोकतंत्रात्मक (Democratism) शब्द से तात्पर्य समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित स्थापित सरकार से है जो जनता के द्वारा निर्वाचित और जनता के प्रति उत्तरदाई रहती है गणराज्य से तात्पर्य है कि देश का प्रधान जनता द्वारा एक ही निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होगा लेकिन वह वंशानुगत नहीं होगा|
  • पंथनिरपेक्ष (Secularism) शब्द इस बात को सुनिश्चित करता है कि भारत में राज्य का अपना कोई धर्म न होगा लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक मर्यादाओं के अधीन किसी भी प्रकार के धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र होगा|
  • ‘समाजवाद’ की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है साधारण इससे तात्पर्य से व्यवस्था से है| जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन राज्य के नियंत्रण में होते हैं लेकिन भारतीय समाजवाद अनूप है| यह ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ पर बल देता है|
  • न्याय-सामाजिकआर्थिक और राजनैतिक प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया हे। सामाजिक न्याय का अर्थ यह है कि सभी नागरिकों को उनके धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव किए बिना, अपने विकास के समान अवसर उपलब्ध हों और समाज के दुर्बल वर्गो का शोषण न किया जाए। आर्थिक न्याय से अभिप्राय यह है कि उत्पादन के साधनों का इस तरह वितरण किया, जाए कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके और उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक हित में प्रयोग किया जाए। सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 38 और 39) में विशेष रूप से निर्देश दिए गए हैं। अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और संरक्षण करके लोक-कल्याण की उन्नति का प्रयास करेगा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनेतिक न्याय भविष्य की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे।
  • भारतीय संविधान में ‘संसदीय ढंग की सरकार’ की स्थापना की है जिसमें वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद के पास है, जो विधायिका के प्रति उत्तरदाई होता है और उसी के सदस्यों द्वारा निर्मित होता है|
  • भारतीय संविधान ‘संघात्मक व्यवस्था’ की स्थापना करता है, जहां केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है|
  • भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता ‘मौलिक अधिकारों की घोषणा’ है| संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन मिलता है|
  • संविधान के भाग 4 में ‘राज्य के नीति निदेशक तत्वों’ का उल्लेख भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता है इन्हें पूरा करना राज्य का पवित्र कर्तव्य माना गया है|
  • भारतीय संविधान नम्यता और अनम्यता का अनोखा मिश्रण है| संविधान के कुछ भागों में परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण करना पड़ता है जबकि अधिकतर उपबंध संसद द्वारा साधारण विधि पारित करने की परिवर्तित किए जा सकते हैं|
मूल कर्तव्य
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-

  • (क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ;
  • (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे;
  • (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
  • (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
  • (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;
  • (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे;
  • (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;
  • (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
  • (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
  • (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले;
  • (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

मौलिक अधिकार या मूल अधिकार

संविधान के भाग ३ में उल्‍‍‍‍‍‍‍‍लेखित अनुच्‍छेद १२ से ३५ मौलिक अधिकारों के संबंध में है। ये अधिकार हैं:

समानता का अधिकार 14-18
संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुसार विश्व के सभी लोग विधि के समक्ष समान हैं अतः वे बिना किसी भेदभाव के विधि के समक्ष न्यायिक सुरक्षा पाने के हक़दार है। भारतीय संविधान के अनुसार, भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकारों के रूप में समता/समानता का अधिकार (अनु. १४ से १८ तक) प्राप्त है जो न्यायालय में वाद योग्य है, ये अधिकार हैं-
  • अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता।
  • अनुच्छेद 15 धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।
  • अनुच्छेद15(4) सामाजिक एवम् शैक्षिक दषि्ट से पिछडे वर्गो के लिए उपबन्ध ।
  • अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
  • अनुच्छेद 17 छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त कर दिया गया है।
  • अनुच्धेद 18 उपाधियों का अन्त कर दिया गया है।
अब केवल दो तरह कि उपाधियाँ मान्य हैं- अनु. 18(1) राज्य सेना द्वारा दी गयी व विद्या द्वारा अर्जित उपाधि। इसके अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ वर्जित हैं। वहीं, अनु. 18(2) द्वारा निर्देश है कि भारत का नागरिक विदेशी राज्य से कोइ उपाधि नहीं लेगा।

समानता के अधिकार का क्रियान्वयन
माना जाता है कि समानता का अधिकार एक तथ्य नहीं विवरण है। विवरण से तात्पर्य उन परिस्थितियों की व्याख्या से है जहाँ समानता का बर्ताव अपेक्षित है। समानता और समरूपता में अंतर है। यदि कहा जाय कि सभी व्यक्ति समान है तो संभव है कि समरूपता का ख़तरा पैदा हो जाय। 'सभी व्यक्ति समान हैं' की अपेक्षा 'सभी व्यक्तियों से समान बर्ताव किया जाना चाहिेए', समानता के अधिकार के क्रियान्वयन का आधार वाक्य है। अनुच्छेद15(4) 1951 मे 1 वे सविघान संशोघन मे उक्त को लाया गया था, अपितु पिछडे वर्ग का कथन जाति से नहीं

प्रतिनिधित्व(आरक्षण)
आरक्षण की व्यवस्था, भेदभावपूर्ण समाज में समान बर्ताव के लिए ज़मीन तैयार करती है। समानता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है- *अवसर की समानता और  प्रतिष्ठा की समानता। अवसर और प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों की इन आदर्शों तक पहुँच सुनिश्चित की जाय। एक वर्ग विभाजित समाज में बिना वाद योग्य कानून और संरक्षण मूलक भेदभाव के समानता के अधिकार की प्राप्ति संभव नहीं है। संरक्षण मूलक भेदभाव के तहत आरक्षण एक सकारात्मक कार्यवाही है। आरक्षण के तहत किसी पिछड़े और वंचित समूह को (जैसे- स्त्री, दलित, अश्वेत आदि) को विशेष रियायतें दी जाती हैं ताकि अतीत में उनके साथ जो अन्याय हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति की जा सके। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आरक्षण और संरक्षण मूलक भेदभाव समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 (4) स्पष्ट करता है कि 'अवसर की समानता' के अधिकार को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है।

स्‍वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद (१९-२२) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार प्राप्त हैं-
  • १- वाक-स्‍वतंत्रता आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण। जमा होने, संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्‍यवसाय करने की स्‍वतंत्रता का अधिकार।
  • २- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण।
  • ३- प्राण और दैहिक स्‍वतंत्रता का संरक्षण।
  • ४- कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
इनमें से कुछ अधिकार राज्‍य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्‍नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीलनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं।
 शोषण के विरुद्ध अधिकार 
अनुच्छेद (2३-२४) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं-
  • १- मानव और दुर्व्‍यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध
  • २- कारखानों आदि में 14 वर्ष तक बालकों के नियोजन का प्रतिषेध

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद (२५-२८) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को प्राप्त है-
  • १- अंत:करण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्‍वतंत्रता। इसके अन्दर सिक्खो को कटार रखने कि आजदी प्राप्त हे -
  • २- धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्‍वतंत्रता।
  • ३- किसी विशिष्‍ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्‍वतंत्रता।
  • ४- कुल शिक्षा संस्‍थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्‍वतंत्रता।

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार

अनुच्छेद (२९-३0) के अंतर्गत प्राप्त अधिकार-
  • १- किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार।
  • २- अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों के हितों का संरक्षण।
  • ३- शिक्षा संस्‍थाओं की स्‍थापना और प्रशासन करने का अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों का अधिकार।

कुछ विधियों की व्यावृत्ति

अनुच्छेद (३१) के अनुसार कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया है-
  • १- संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
  • २- कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यीकरण।
  • ३- कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

डॉ॰ भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद ३२-३५) को 'संविधान का हृदय और आत्मा' की संज्ञा दी थी। सांवैधानिक उपचार के अधिकार के अन्दर ५ प्रकार के प्रावधान हैं-
  • १- बन्दी प्रत्यक्षीकरण : बंदी प्रत्यक्षीकरण द्वारा किसी भी गिरफ़्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी किया जाता है। यदि गिरफ़्तारी का तरीका या कारण ग़ैरकानूनी या संतोषजनक न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है।
  • २- परमादेश : यह आदेश उन परिस्थितियों में जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
  • ३- निषेधाज्ञा : जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए 'निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख' जारी करती हैं।
  • ४- अधिकार पृच्छा : जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं है तब न्यायालय 'अधिकार पृच्छा आदेश' जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
  • ५- उत्प्रेषण रिट : जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।
अनुच्छेदमहत्ता
अनुच्छेद 12 –35मूलभूत अधिकारों का विवरण
अनुच्छेद 36-50राज्य की नीति के निदेशक तत्व
अनुच्छेद 51Aप्रत्येक नागरिक के मूल कर्तव्यों का विवरण
अनुच्छेद 80राज्यसभा की सरंचना
अनुच्छेद 81लोकसभा की सरंचना
अनुच्छेद 343राजभाषा के रूप में हिन्दी
अनुच्छेद 356राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के विषय मे
अनुच्छेद 368संविधान का संशोधन
अनुच्छेद 370जम्मू और कश्मीर के सम्बंध मे उपबंध
अनुच्छेद 395भारत स्वतंत्रता अधिनियम और भारत सरकार अधिनियम, 1935 का निरसन 

 भारत के संविधान की 12 अनुसूचियाँ  
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1) प्रथम अनुसूची :- इसके अंतर्गत भारत के 29 राज्य तथा 7 केंद्र शासित प्रदेशो का उल्लेख किया गया है|
2) दूसरी अनुसूची :- इसमें भारतीय संघ के पदाधिकारियों को मिलने वाले वेतन, भत्ते तथा पेंशन का उल्लेख है|
3) तीसरी अनुसूची :- इसमें भारत के विभिन्न पदाधिकारियों की शपथ का उल्लेख है|
4) चौथी अनुसूची :- इसके अंतर्गत राज्यों का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व का विवरण मिलता है|
5) पाँचवी अनुसूची :- इसमें अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजाति के प्रशासन व नियंत्रण के बारे में उल्लेख मिलता है|
6) छटवी अनुसूची :- इसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में उपबंध हैं|
7) सातवी अनुसूची :- इसके अंतर्गत केंद्र व राज्यों के बीच शक्तियों का बटवारा किया गया है| इस अनुसूची में 3 सूचियों है :-
  • संघ सूची :- इसके अंतर्गत 98 विषय है| इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र को है|
  • राज्य सूची :- इस सूची में 62 विषय है| जिन पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य को है| लेकिन राष्ट्रहित से सम्बन्धित मामलो में केंद्र भी कानून बना सकता है|
  • समवर्ती सूची :- इसके अंतर्गत 52 विषय है| इन पर केंद्र व राज्य दोनों कानून बना सकते है|परन्तु कानून के विषय समान होने पर केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून मान्य होता है|राज्य द्वारा बनाया गया कनून केंद्र द्वारा बनाने के बाद समाप्त हो जाता है|
8) आठवी अनुसूची :- इसमें भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं का उल्लेख किया गया है| मूल संविधान में 14 मान्यता प्राप्त भाषाए थी|
सन 2004 में चार नई भाषाए मैथली, संथाली, डोगरी और बोडो को इसमें शामिल किया गया|
9) नौंवी अनुसूची :- यह अनुसूची प्रथम संविधान संसोधन अधिनियम 1951 द्वारा जोड़ी गयी थी| इस अनुसूची में सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती| लेकिन यदि कोई विषय मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करे तो उच्चतम न्यायालय इस कानून की समीक्षा कर सकता है|
अभी तक नौंवी अनुसूची में 283 अधिनियम है, जिनमे राज्य सरकार द्वारा सम्पति अधिकरण का उल्लेख प्रमुख है|
10) दसवी अनुसूची :- इसे 52वें संविधान संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इस अनुसूची में दल-बदल सम्बन्धित कानूनों का उल्लेख किया गया है|
11) ग्यारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| यह अनुसूची पंचायती राज से सम्बन्धित है, जिसमे पंचायती राज से सम्बन्धित 29 विषय है|
12) बारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इसमें शहरी क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन संस्थानों से सम्बन्धित 18 विषय है|

भारत के संविधान को लागू किए जाने से पहले भी 26 जनवरी का बहुत महत्त्व था। 26 जनवरी को विशेष दिन के रूप में चिह्नित किया गया था, 31 दिसंबर सन् 1929 के मध्‍य रात्रि में राष्‍ट्र को स्वतंत्र बनाने की पहल करते हुए लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हु‌आ,


जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की ग‌ई कि यदि अंग्रेज़ सरकार 26 जनवरी, 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा।

26 जनवरी, 1930 तक जब अंग्रेज़ सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगे झंडे को फहराया गया था परंतु साथ ही इस दिन सर्वसम्मति से एक और महत्त्वपूर्ण फैसला लिया गया कि प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन सभी स्वतंत्रता सेनानी पूर्ण स्वराज का प्रचार करेंगे। इस तरह 26 जनवरी अघोषित रूप से भारत का स्वतंत्रता दिवस बन गया था। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। 

भारतीय संविधान सभा का पहला दिन (११ दिसम्बर १९४६)। बैठे हुए दाएं से: बी जी खेर, सरदार बल्लभ भाई पटेल, के एम मुंशी और डॉ. भीमराव आंबेडकर



शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
मोबाईल नम्‍बर 09479836178