Monday, 8 January 2018

भारतीय संविधान की प्रस्‍तावना

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता  सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्प होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति माघशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

भारत का संविधान शांतिकाल में संघात्मक है तो संकटकाल में यह एकात्मक रूप धारण कर लेता है| भारत का संविधान, भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। यह दिन (26 नवम्बर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। 11 दिसंबर 1946 को डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। डॉ भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति ने संविधान का निर्माण अंतिम रूप से किया। 26 नवंबर 1949 को संविधान अंगीकृत, अधिनिमित हुआ। 26 जनवरी 1950 से संविधान लागू हुआ। भारत इसी दिन से गणतंत्र बना। मूल संविधान में 22 भाग, 8 अनुसूचियाँ तथा 395 अनुच्छेद थे। वर्तमान में इसमें 12 अनुसूचियाँ हैं। भारतीय संविधान का दो तिहाई भाग भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है।



भारत का संविधान भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष तथा लोकतंत्रात्मक गणराज्य स्थापित करता है| संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न शब्द से इस बात का बोध होता है कि भारत अपने आंतरिक और बाह्य मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र है वही समाजवादी शब्द ऐसे शासन व्यवस्था को स्थापित करने की बात करता है जिनमें उत्पादन के साधनों का प्रयोग सामाजिक हित में किया जा सके और आर्थिक शोषण का अंत करके हर व्यक्ति को जीवकोपार्जन (Livlihood)की सुविधा दी जा सके|
  • भारतीय संविधान विश्व का सबसे बड़ा और विस्तृत संविधान है लेकिन अनुच्छेद के आधार पर यूगोस्लाविया का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है|
  • भारतीय संविधान भारत में प्रभुत्व संपन्न, लोकतंत्रात्मक, पंथनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य की स्थापना करता है|
  • प्रभूत्‍व संपन्नता से अर्थ है कि भारत का वह नियंत्रण से सर्वथा मुक्त है तथा अपनी आंतरिक एवं विदेशी नीति को स्वयं निर्धारित करता है|
  • लोकतंत्रात्मक (Democratism) शब्द से तात्पर्य समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित स्थापित सरकार से है जो जनता के द्वारा निर्वाचित और जनता के प्रति उत्तरदाई रहती है गणराज्य से तात्पर्य है कि देश का प्रधान जनता द्वारा एक ही निश्चित अवधि के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होगा लेकिन वह वंशानुगत नहीं होगा|
  • पंथनिरपेक्ष (Secularism) शब्द इस बात को सुनिश्चित करता है कि भारत में राज्य का अपना कोई धर्म न होगा लेकिन प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक मर्यादाओं के अधीन किसी भी प्रकार के धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र होगा|
  • ‘समाजवाद’ की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है साधारण इससे तात्पर्य से व्यवस्था से है| जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन राज्य के नियंत्रण में होते हैं लेकिन भारतीय समाजवाद अनूप है| यह ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ पर बल देता है|
  • न्याय-सामाजिकआर्थिक और राजनैतिक प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया हे। सामाजिक न्याय का अर्थ यह है कि सभी नागरिकों को उनके धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर भेदभाव किए बिना, अपने विकास के समान अवसर उपलब्ध हों और समाज के दुर्बल वर्गो का शोषण न किया जाए। आर्थिक न्याय से अभिप्राय यह है कि उत्पादन के साधनों का इस तरह वितरण किया, जाए कि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके और उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक हित में प्रयोग किया जाए। सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना के लिए राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 38 और 39) में विशेष रूप से निर्देश दिए गए हैं। अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना और संरक्षण करके लोक-कल्याण की उन्नति का प्रयास करेगा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनेतिक न्याय भविष्य की सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे।
  • भारतीय संविधान में ‘संसदीय ढंग की सरकार’ की स्थापना की है जिसमें वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद के पास है, जो विधायिका के प्रति उत्तरदाई होता है और उसी के सदस्यों द्वारा निर्मित होता है|
  • भारतीय संविधान ‘संघात्मक व्यवस्था’ की स्थापना करता है, जहां केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है|
  • भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता ‘मौलिक अधिकारों की घोषणा’ है| संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों का विस्तृत वर्णन मिलता है|
  • संविधान के भाग 4 में ‘राज्य के नीति निदेशक तत्वों’ का उल्लेख भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता है इन्हें पूरा करना राज्य का पवित्र कर्तव्य माना गया है|
  • भारतीय संविधान नम्यता और अनम्यता का अनोखा मिश्रण है| संविधान के कुछ भागों में परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण करना पड़ता है जबकि अधिकतर उपबंध संसद द्वारा साधारण विधि पारित करने की परिवर्तित किए जा सकते हैं|
मूल कर्तव्य
भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-

  • (क) संविधान का पालन करे और उस के आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे ;
  • (ख) स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उन का पालन करे;
  • (ग) भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे;
  • (घ) देश की रक्षा करे और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
  • (ङ) भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;
  • (च) हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उस का परिरक्षण करे;
  • (छ) प्राकृतिक पर्यावरण की, जिस के अंतर्गत वन, झील नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उस का संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे;
  • (ज) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
  • (झ) सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
  • (ञ) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिस से राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊंचाइयों को छू ले;
  • (ट) यदि माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा का अवसर प्रदान करे।

मौलिक अधिकार या मूल अधिकार

संविधान के भाग ३ में उल्‍‍‍‍‍‍‍‍लेखित अनुच्‍छेद १२ से ३५ मौलिक अधिकारों के संबंध में है। ये अधिकार हैं:

समानता का अधिकार 14-18
संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुसार विश्व के सभी लोग विधि के समक्ष समान हैं अतः वे बिना किसी भेदभाव के विधि के समक्ष न्यायिक सुरक्षा पाने के हक़दार है। भारतीय संविधान के अनुसार, भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकारों के रूप में समता/समानता का अधिकार (अनु. १४ से १८ तक) प्राप्त है जो न्यायालय में वाद योग्य है, ये अधिकार हैं-
  • अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता।
  • अनुच्छेद 15 धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।
  • अनुच्छेद15(4) सामाजिक एवम् शैक्षिक दषि्ट से पिछडे वर्गो के लिए उपबन्ध ।
  • अनुच्छेद 16 लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
  • अनुच्छेद 17 छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त कर दिया गया है।
  • अनुच्धेद 18 उपाधियों का अन्त कर दिया गया है।
अब केवल दो तरह कि उपाधियाँ मान्य हैं- अनु. 18(1) राज्य सेना द्वारा दी गयी व विद्या द्वारा अर्जित उपाधि। इसके अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ वर्जित हैं। वहीं, अनु. 18(2) द्वारा निर्देश है कि भारत का नागरिक विदेशी राज्य से कोइ उपाधि नहीं लेगा।

समानता के अधिकार का क्रियान्वयन
माना जाता है कि समानता का अधिकार एक तथ्य नहीं विवरण है। विवरण से तात्पर्य उन परिस्थितियों की व्याख्या से है जहाँ समानता का बर्ताव अपेक्षित है। समानता और समरूपता में अंतर है। यदि कहा जाय कि सभी व्यक्ति समान है तो संभव है कि समरूपता का ख़तरा पैदा हो जाय। 'सभी व्यक्ति समान हैं' की अपेक्षा 'सभी व्यक्तियों से समान बर्ताव किया जाना चाहिेए', समानता के अधिकार के क्रियान्वयन का आधार वाक्य है। अनुच्छेद15(4) 1951 मे 1 वे सविघान संशोघन मे उक्त को लाया गया था, अपितु पिछडे वर्ग का कथन जाति से नहीं

प्रतिनिधित्व(आरक्षण)
आरक्षण की व्यवस्था, भेदभावपूर्ण समाज में समान बर्ताव के लिए ज़मीन तैयार करती है। समानता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है- *अवसर की समानता और  प्रतिष्ठा की समानता। अवसर और प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों की इन आदर्शों तक पहुँच सुनिश्चित की जाय। एक वर्ग विभाजित समाज में बिना वाद योग्य कानून और संरक्षण मूलक भेदभाव के समानता के अधिकार की प्राप्ति संभव नहीं है। संरक्षण मूलक भेदभाव के तहत आरक्षण एक सकारात्मक कार्यवाही है। आरक्षण के तहत किसी पिछड़े और वंचित समूह को (जैसे- स्त्री, दलित, अश्वेत आदि) को विशेष रियायतें दी जाती हैं ताकि अतीत में उनके साथ जो अन्याय हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति की जा सके। यह बात ध्यान देने योग्य है कि आरक्षण और संरक्षण मूलक भेदभाव समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16 (4) स्पष्ट करता है कि 'अवसर की समानता' के अधिकार को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है।

स्‍वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद (१९-२२) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार प्राप्त हैं-
  • १- वाक-स्‍वतंत्रता आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण। जमा होने, संघ या यूनियन बनाने, आने-जाने, निवास करने और कोई भी जीविकोपार्जन एवं व्‍यवसाय करने की स्‍वतंत्रता का अधिकार।
  • २- अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण।
  • ३- प्राण और दैहिक स्‍वतंत्रता का संरक्षण।
  • ४- कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण।
इनमें से कुछ अधिकार राज्‍य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्‍नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीलनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं।
 शोषण के विरुद्ध अधिकार 
अनुच्छेद (2३-२४) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं-
  • १- मानव और दुर्व्‍यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध
  • २- कारखानों आदि में 14 वर्ष तक बालकों के नियोजन का प्रतिषेध

धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार

अनुच्छेद (२५-२८) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को प्राप्त है-
  • १- अंत:करण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्‍वतंत्रता। इसके अन्दर सिक्खो को कटार रखने कि आजदी प्राप्त हे -
  • २- धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्‍वतंत्रता।
  • ३- किसी विशिष्‍ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्‍वतंत्रता।
  • ४- कुल शिक्षा संस्‍थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्‍वतंत्रता।

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार

अनुच्छेद (२९-३0) के अंतर्गत प्राप्त अधिकार-
  • १- किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार।
  • २- अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों के हितों का संरक्षण।
  • ३- शिक्षा संस्‍थाओं की स्‍थापना और प्रशासन करने का अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों का अधिकार।

कुछ विधियों की व्यावृत्ति

अनुच्छेद (३१) के अनुसार कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया है-
  • १- संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।
  • २- कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यीकरण।
  • ३- कुछ निदेशक तत्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावृत्ति।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

डॉ॰ भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद ३२-३५) को 'संविधान का हृदय और आत्मा' की संज्ञा दी थी। सांवैधानिक उपचार के अधिकार के अन्दर ५ प्रकार के प्रावधान हैं-
  • १- बन्दी प्रत्यक्षीकरण : बंदी प्रत्यक्षीकरण द्वारा किसी भी गिरफ़्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किये जाने का आदेश जारी किया जाता है। यदि गिरफ़्तारी का तरीका या कारण ग़ैरकानूनी या संतोषजनक न हो तो न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है।
  • २- परमादेश : यह आदेश उन परिस्थितियों में जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है।
  • ३- निषेधाज्ञा : जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र को अतिक्रमित कर किसी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए 'निषेधाज्ञा या प्रतिषेध लेख' जारी करती हैं।
  • ४- अधिकार पृच्छा : जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी अधिकार नहीं है तब न्यायालय 'अधिकार पृच्छा आदेश' जारी कर व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
  • ५- उत्प्रेषण रिट : जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेषण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या सक्षम अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।
अनुच्छेदमहत्ता
अनुच्छेद 12 –35मूलभूत अधिकारों का विवरण
अनुच्छेद 36-50राज्य की नीति के निदेशक तत्व
अनुच्छेद 51Aप्रत्येक नागरिक के मूल कर्तव्यों का विवरण
अनुच्छेद 80राज्यसभा की सरंचना
अनुच्छेद 81लोकसभा की सरंचना
अनुच्छेद 343राजभाषा के रूप में हिन्दी
अनुच्छेद 356राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के विषय मे
अनुच्छेद 368संविधान का संशोधन
अनुच्छेद 370जम्मू और कश्मीर के सम्बंध मे उपबंध
अनुच्छेद 395भारत स्वतंत्रता अधिनियम और भारत सरकार अधिनियम, 1935 का निरसन 

 भारत के संविधान की 12 अनुसूचियाँ  
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1) प्रथम अनुसूची :- इसके अंतर्गत भारत के 29 राज्य तथा 7 केंद्र शासित प्रदेशो का उल्लेख किया गया है|
2) दूसरी अनुसूची :- इसमें भारतीय संघ के पदाधिकारियों को मिलने वाले वेतन, भत्ते तथा पेंशन का उल्लेख है|
3) तीसरी अनुसूची :- इसमें भारत के विभिन्न पदाधिकारियों की शपथ का उल्लेख है|
4) चौथी अनुसूची :- इसके अंतर्गत राज्यों का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व का विवरण मिलता है|
5) पाँचवी अनुसूची :- इसमें अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजाति के प्रशासन व नियंत्रण के बारे में उल्लेख मिलता है|
6) छटवी अनुसूची :- इसमें असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में उपबंध हैं|
7) सातवी अनुसूची :- इसके अंतर्गत केंद्र व राज्यों के बीच शक्तियों का बटवारा किया गया है| इस अनुसूची में 3 सूचियों है :-
  • संघ सूची :- इसके अंतर्गत 98 विषय है| इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल केंद्र को है|
  • राज्य सूची :- इस सूची में 62 विषय है| जिन पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्य को है| लेकिन राष्ट्रहित से सम्बन्धित मामलो में केंद्र भी कानून बना सकता है|
  • समवर्ती सूची :- इसके अंतर्गत 52 विषय है| इन पर केंद्र व राज्य दोनों कानून बना सकते है|परन्तु कानून के विषय समान होने पर केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया कानून मान्य होता है|राज्य द्वारा बनाया गया कनून केंद्र द्वारा बनाने के बाद समाप्त हो जाता है|
8) आठवी अनुसूची :- इसमें भारतीय संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं का उल्लेख किया गया है| मूल संविधान में 14 मान्यता प्राप्त भाषाए थी|
सन 2004 में चार नई भाषाए मैथली, संथाली, डोगरी और बोडो को इसमें शामिल किया गया|
9) नौंवी अनुसूची :- यह अनुसूची प्रथम संविधान संसोधन अधिनियम 1951 द्वारा जोड़ी गयी थी| इस अनुसूची में सम्मिलित विषयों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती| लेकिन यदि कोई विषय मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करे तो उच्चतम न्यायालय इस कानून की समीक्षा कर सकता है|
अभी तक नौंवी अनुसूची में 283 अधिनियम है, जिनमे राज्य सरकार द्वारा सम्पति अधिकरण का उल्लेख प्रमुख है|
10) दसवी अनुसूची :- इसे 52वें संविधान संशोधन अधिनियम 1985 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इस अनुसूची में दल-बदल सम्बन्धित कानूनों का उल्लेख किया गया है|
11) ग्यारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| यह अनुसूची पंचायती राज से सम्बन्धित है, जिसमे पंचायती राज से सम्बन्धित 29 विषय है|
12) बारहवी अनुसूची :- यह अनुसूची 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा मूल संविधान में जोड़ा गया| इसमें शहरी क्षेत्रों के स्थानीय स्वशासन संस्थानों से सम्बन्धित 18 विषय है|

भारत के संविधान को लागू किए जाने से पहले भी 26 जनवरी का बहुत महत्त्व था। 26 जनवरी को विशेष दिन के रूप में चिह्नित किया गया था, 31 दिसंबर सन् 1929 के मध्‍य रात्रि में राष्‍ट्र को स्वतंत्र बनाने की पहल करते हुए लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हु‌आ,


जिसमें प्रस्ताव पारित कर इस बात की घोषणा की ग‌ई कि यदि अंग्रेज़ सरकार 26 जनवरी, 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) नहीं प्रदान करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा।

26 जनवरी, 1930 तक जब अंग्रेज़ सरकार ने कुछ नहीं किया तब कांग्रेस ने उस दिन भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के निश्चय की घोषणा की और अपना सक्रिय आंदोलन आरंभ किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगे झंडे को फहराया गया था परंतु साथ ही इस दिन सर्वसम्मति से एक और महत्त्वपूर्ण फैसला लिया गया कि प्रतिवर्ष 26 जनवरी का दिन पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन सभी स्वतंत्रता सेनानी पूर्ण स्वराज का प्रचार करेंगे। इस तरह 26 जनवरी अघोषित रूप से भारत का स्वतंत्रता दिवस बन गया था। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। 

भारतीय संविधान सभा का पहला दिन (११ दिसम्बर १९४६)। बैठे हुए दाएं से: बी जी खेर, सरदार बल्लभ भाई पटेल, के एम मुंशी और डॉ. भीमराव आंबेडकर



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सूचना का अधिकार



सूचना का अधिकार इक्‍कीसवीं सदी के प्रांरभ का जन साधारण का एक अमूल्‍य उपहार है। जब से संविधान के अनुच्‍छेद 21 तथा 19(1)(क) अंतर्गत क्रमश: प्राण एवं देहिक स्‍वतंत्रता तथा वाक एवं अभिव्‍यक्ति की स्‍वतत्रंता के मूल अधिकार का उद्घाेेेष किया गया है, तब से सूचना के अधिकार काे अपरिहार्य माने जाने लगा है, क्‍योंकि इस अधिकार के बिना दोनों स्‍वतंत्रताऐं अपूर्ण लगती हैं, अंतत: वर्ष 2005 में यह अधिनियम बन ही गया और 12 अक्‍टूबर 2005 मैैं यह अधिनियम लागू हो गया।


सूचना का अधिकार अधिनियम के अंंतर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते है-

  1. कार्यो, दस्तावेजों, रिकार्डो का निरीक्षण।
  2. दस्तावेज या रिकार्डो की प्रस्तावना। सारांश, नोट्स व प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करना।
  3. सामग्री के प्रमाणित नमूने लेना।
  4. प्रिंट आउट, डिस्क, फ्लाॅपी, टेप, वीडियो कैसेटो के रूप में या कोई अन्य इलेक्ट्रानिक रूप में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
सूचना का अधिकार अधिनियम् 2005 के प्रमुख प्रावधानः
  • समस्त सरकारी विभाग, पब्लिक सेक्टर यूनिट, किसी भी प्रकार की सरकारी सहायता से चल रहीं गैर सरकारी संस्थाएं व शिक्षण संस्थान आदि विभाग इसमें शामिल हैं। पूर्णतः से निजी संस्थाएं इस कानून के दायरे में नहीं हैं लेकिन यदि किसी कानून के तहत कोई सरकारी विभाग किसी निजी संस्था से कोई जानकारी मांग सकता है तो उस विभाग के माध्यम से वह सूचना मांगी जा सकती है। 
  • प्रत्येक सरकारी विभाग में एक या एक से अधिक जनसूचना अधिकारी बनाए गए हैं, जो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन स्वीकार करते हैं, मांगी गई सूचनाएं एकत्र करते हैं और उसे आवेदनकर्ता को उपलब्ध कराते हैं। 
  • जनसूचना अधिकारी की दायित्व है कि वह 30 दिन अथवा जीवन व स्वतंत्रता के मामले में 48 घण्टे के अन्दर (कुछ मामलों में 45 दिन तक) मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए।
  • यदि जनसूचना अधिकारी आवेदन लेने से मना करता है, तय समय सीमा में सूचना नहीं उपलब्ध् कराता है अथवा गलत या भ्रामक जानकारी देता है तो देरी के लिए 250 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 25000 तक का जुर्माना उसके वेतन में से काटा जा सकता है। साथ ही उसे सूचना भी देनी होगी। 
  • लोक सूचना अधिकारी को अधिकार नहीं है कि वह आपसे सूचना मांगने का कारण नहीं पूछ सकता। 
  • सूचना मांगने के लिए आवेदन फीस देनी होगी (केन्द्र सरकार ने आवेदन के साथ 10 रुपए की फीस तय की है। लेकिन कुछ राज्यों में यह अधिक है, बीपीएल कार्डधरकों को आवेदन शुल्क में छुट प्राप्त है। 
  • दस्तावेजों की प्रति लेने के लिए भी फीस देनी होगी। केन्द्र सरकार ने यह फीस 2 रुपए प्रति पृष्ठ रखी है लेकिन कुछ राज्यों में यह अधिक है, अगर सूचना तय समय सीमा में नहीं उपलब्ध कराई गई है तो सूचना मुफ्त दी जायेगी। 
  • यदि कोई लोक सूचना अधिकारी यह समझता है कि मांगी गई सूचना उसके विभाग से सम्बंधित नहीं है तो यह उसका कर्तव्य है कि उस आवेदन को पांच दिन के अन्दर सम्बंधित विभाग को भेजे और आवेदक को भी सूचित करे। ऐसी स्थिति में सूचना मिलने की समय सीमा 30 की जगह 35 दिन होगी। 
  • लोक सूचना अधिकारी यदि आवेदन लेने से इंकार करता है। अथवा परेशान करता है। तो उसकी शिकायत सीधे सूचना आयोग से की जा सकती है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं को अस्वीकार करने, अपूर्ण, भ्रम में डालने वाली या गलत सूचना देने अथवा सूचना के लिए अधिक फीस मांगने के खिलाफ केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग के पास शिकायत कर सकते है। 
  • जनसूचना अधिकारी कुछ मामलों में सूचना देने से मना कर सकता है। जिन मामलों से सम्बंधित सूचना नहीं दी जा सकती उनका विवरण सूचना के अधिकार कानून की धारा 8 में दिया गया है। लेकिन यदि मांगी गई सूचना जनहित में है तो धारा 8 में मना की गई सूचना भी दी जा सकती है। जो सूचना संसद या विधानसभा को देने से मना नहीं किया जा सकता उसे किसी आम आदमी को भी देने से मना नहीं किया जा सकता। 
  • यदि लोक सूचना अधिकारी निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना नहीं देते है या धारा 8 का गलत इस्तेमाल करते हुए सूचना देने से मना करता है, या दी गई सूचना से सन्तुष्ट नहीं होने की स्थिति में 30 दिनों के भीतर सम्बंधित जनसूचना अधिकारी के वरिष्ठ अधिकारी यानि प्रथम अपील अधिकारी के समक्ष प्रथम अपील की जा सकती है। 
  • यदि आप प्रथम अपील से भी सन्तुष्ट नहीं हैं तो दूसरी अपील 60 दिनों के भीतर केन्द्रीय या राज्य सूचना आयोग (जिससे सम्बंधित हो) के पास करनी होती है।
सूचना का अधिकार अधिनियम RTI के माध्‍यम से आप सरकार और किसी भी विभाग से सूचना मांग सकते है, आमतौर पर लोगो को इतना ही पता होता है। यही वजह है की अमूमन लोग एक सादे कागज पर अपने सवाल लिखकर सम्बंधित विभाग को भेज देते हैं लेकिन उसका उत्तर नहीं मिलता क्योंकि RTI सही तरीके से दाखिल नहीं रहती। आज हम आपको RTI से सम्बंधित सही तरीके से आवेदन लिखने की जानकारी दे रहे हैं ताकि आप इसका लाभ उठा सकें, सूचना के अधिकार हेतु आवेदन की प्रति प्रस्‍तुत है, इसे आप डाउनलोड करके सूचना का अधिकार अधिनियम के अंतर्गत संबंधित विभाग से जानकारी प्राप्‍त कर सकते हैं, आपकी सुविधा के लिए भरा हुआ आवेदन एवं रिक्‍त आवेदन दोनों दिये गये हैं, आप क्लिक करके डाउनलोड कर सकते हैैंं।


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Thursday, 4 January 2018

निर्वसीयती उत्तराधिकार

सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन
(1) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ पर और से, मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में, सहदायिक की पुत्री —
(क) जन्म से उसी ढंग में अपने अधिकार में सहदायिक होगी, जैसे पुत्र,
(ख) को सहदायिकी सम्पति में वही अधिकार होगा, जैसा उसे होता, यदि वह पुत्र होता,
(ग) उक्त सहदायिकी सम्पति के सम्बन्ध में उन्हीं दायित्वों के अध्यधीन होगी, जैसे पुत्र का दायित्व है।
और हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का कोई निदेश सहदायिक की पुत्री के निर्देश को शामिल करने वाला माना जायेगा; परन्तु इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई चीज सम्पति के किसी विभाजन या वसीयती विन्यास को, जो दिसम्बर, 2004 के 20वें दिन के पूर्व किया गया है, शामिल करके किसी विन्यास या अन्य संक्रमण को प्रभावित नहीं करेगी या अविधिमान्य नहीं बनायेगी।
(2) कोई सम्पति, जिसमें महिला हिन्दू उपधारा (1) के परिणामस्वरूप हकदार होती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की घटना के साथ धारण की जायेगी और इस अधिनियम या तत्समय प्रवर्तित किस अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी चीज के होते हुये भी वसीयती विन्यास द्वारा उसके द्वारा व्ययन करने योग्‍य सम्पति मानी जायेगी।
(3) जहाँ हिन्दू की मृत्यु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के बाद होती है वहाँ मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में उसका हित इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निवसीयती उत्तराधिकार द्वारा, यथास्थिति, निगमित होगा औ उत्तरजीविता के द्वारा नहीं; और सहदायिकी सम्पति विभाजित की गयी मानी जायेगी, मानों विभाजन् हुआ था और, -
(क) पुत्री को वही अंश आवंटित किया जाता है, जो पुत्र को आवंटित किया जाता है,
(ख) पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री का अंश, जिसे वे प्राप्त करते, यदि वे विभाजन के समय जीवित् रहते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र के या ऐसे पूर्व मृत पुत्री के उत्तरजीवी सन्तान को आवंटित किय जायेगा, और
(ग) पूर्व मृत पुत्र के या पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत सन्तान का अंश, जिसे ऐसी सन्तान प्राप्त करता, यदि वह विभाजन के समय जीवित रहता या रहती, पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री के, यथास्थिति, के पूर्व मृत सन्तान की सन्तान को आवंटित किया जायेगा।
स्पष्टीकरण
इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित सम्पत्तिमें वह अंश समझा जायेगा जो उसे विभाजन में मिलता, यदि उसकी अपनी मृत्यु में अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता इस बात का विचार किये बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के बाद, कोई न्यायालय पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह-प्रपितामह से किसी बकाया ऋण की वसूली के लिये एकमात्र हिन्दू विधि के अधीन पवित्र कर्तव्य के आधार पर किसी ऐसे ऋण का उन्मोचन करने के लिए ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के हिन्दू विधि के अधीन पवित्र आबद्धता के आधार पर कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा; परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ के पूर्व लिये गये किसी ऋण के मामले में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई चीज -
(क) पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध, यथास्थिति, कार्यवाही करने के लिये किसी लेनदार के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा, या
(ख) किसी ऐसे ऋण के सम्बन्ध में या ऋण की तुष्टि में किये गये किसी अन्य संक्रमण को प्रभावित नहीं करेगा और कोई ऐसा अधिकार या अन्य संक्रमण उसी ढंग में और उसी विस्तार तक पवित्र कर्तव्य के नियम के अधीन प्रवर्तनीय होगा, जैसे यह प्रवर्तनीय होता, मानों हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 प्रवर्तित किया गया है।
स्पष्टीकरण - खण्ड (ख) के प्रयोजनों के लिये अभिव्यक्ति 'पुत्र', 'पौत्र' या 'प्रपौत्र' को पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र को, यथास्थिति निर्दिष्ट करने वाला माना जायेगा, जिसे हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारम्भ पूर्व जन्मा था या दत्तक लिया गया था।
(5) इस धारा में अंतर्विष्ट कोई चीज उस विभाजन को लागू नहीं होगी, जो दिसम्बर, 2004 के 20वें दिन के पूर्व हुआ था।
स्पष्टीकरण
इस धारा के प्रयोजनों के लिये 'विभाजन' से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के अधीन सम्यक् से पंजीकृत विभाजन विलेख के निष्पादन द्वारा किया गया कोई विभाजन, न्यायालय के डिक्री द्वारा किया गया विभाजन अभिप्रेत है।


शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
मोबाईल नम्‍बर 09479836178

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005
घरेलू हिंसा क्‍या है ?
शारीरिक दुर्व्यवहार अर्थात शारीरिक पीड़ा, अपहानि या जीवन या अंग या स्वास्थ्य को खतरा या लैगिंग दुर्व्यवहार अर्थात महिला की गरिमा का उल्लंघन, अपमान या तिरस्कार करना या अतिक्रमण करना या मौखिक और भावनात्मक दुर्व्यवहार अर्थात अपमान, उपहास, गाली देना या आर्थिक दुर्व्यवहार अर्थात आर्थिक या वित्तीय संसाधनों, जिसकी वह हकदार है, से वंचित करना,मानसिक रूप से परेशान करना ये सभी घरेलू हिंसा कहलाते हैं। इस क़ानून के तहत घरेलू हिंसा के दायरे में अनेक प्रकार की हिंसा और दुर्व्यवहार आते हैं। किसी भी घरेलू सम्बंध या नातेदारी में किसी प्रकार का व्यवहार, आचरण या बर्ताव जिससे (१) आपके स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, या किसी अंग को कोई क्षति पहुँचती है, या (२) मानसिक या शारीरिक हानि होती है, घरेलू हिंसा है।
इसके अलावा घरेलू सम्बन्धों या नातेदारी में, किसी भी प्रकार का
  • शारीरिक दुरुपयोग (जैसे मार-पीट करना, थप्पड़ मारना, दाँत काटना, ठोकर मारना, लात मारना इत्यादि),
  • लैंगिक शोषण (जैसे बलात्कार अथवा बलपूर्वक बनाए गए शारीरिक सम्बंध, अश्लील साहित्य या सामग्री देखने के लिए मजबूर करना, अपमानित करने के दृष्टिकोण से किया गया लैंगिक व्यवहार, और बालकों के साथ लैंगिक दुर्व्यवहार),
  • मौखिक और भावनात्मक हिंसा ( जैसे अपमानित करना, गालियाँ देना, चरित्र और आचरण पर आरोप लगाना, लड़का न होने पर प्रताड़ित करना, दहेज के नाम पर प्रताड़ित करना, नौकरी न करने या छोड़ने के लिए मजबूर करना, आपको अपने मन से विवाह न करने देना या किसी व्यक्ति विशेष से विवाह के लिए मजबूर करना, आत्महत्या की धमकी देना इत्यादि),
  • आर्थिक हिंसा ( जैसे आपको या आपके बच्चे को अपनी देखभाल के लिए धन और संसाधन न देना, आपको अपना रोज़गार न करने देना, या उसमें रुकावट डालना, आपकी आय, वेतन इत्यादि आपसे ले लेना, घर से बाहर निकाल देना इत्यादि), भी घरेलू हिंसा है।
घरेलू हिंसा की कानूनी परिभाषा
“घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिला संरक्षण अधिनियम की धारा, 2005” घरेलू हिंसा को पारिभाषित किया गया है -“प्रतिवादी का कोई बर्ताव, भूल या किसी और को काम करने के लिए नियुक्त करना, घरेलू हिंसा में माना जाएगा –
(क) क्षति पहुँचाना या जख्मी करना या पीड़ित व्यक्ति को स्वास्थ्य, जीवन, अंगों या हित को मानसिक या शारीरिक तौर से खतरे में डालना या ऐसा करने की नीयत रखना और इसमें शारीरिक, यौनिक, मौखिक और भावनात्मक और आर्थिक शोषण शामिल है; या
(ख) दहेज़ या अन्य संपत्ति या मूल्यवान प्रतिभूति की अवैध मांग को पूरा करने के लिए महिला या उसके रिश्तेदारों को मजबूर करने के लिए यातना देना, नुक्सान पहुँचाना या जोखिम में डालना ; या
(ग) पीड़ित या उसके निकट सम्बन्धियों पर उपरोक्त वाक्यांश (क) या (ख) में सम्मिलित किसी आचरण के द्वारा दी गयी धमकी का प्रभाव होना; या
(घ) पीड़ित को शारीरिक या मानसिक तौर पर घायल करना या नुक्सान पहुँचाना”   
इस प्रकार से किया गया कोई व्यव्हार या आचरण घरेलू हिंसा के दायरे में आता है या नहीं, इसका निर्णय प्रत्येक मामले के तथ्य विशेष के आधार पर किया जाता है. इस अधिनियम के तहत यह जरूरी नहीं है की पीड़ित व्यक्ति ही शिकायत दर्ज कराये. कोई भी व्यक्ति चाहे वह पीड़ित से संबंधित हो या नहीं, घरेलू हिंसा की जानकारी इस अधिनियम के तहत नियुक्त सम्बद्ध अधिकारी को दे सकता है.

घरेलू हिंसा की शिकायत कौन दर्ज करा सकता है?

यह कोई जरूरी नहीं है कि घरेलू हिंसा वास्तव में ही घट रही हो, घटना होने की आशंका के सम्बन्ध में भी जानकारी दी जा सकती है. आरोपी व्यक्ति से घरेलू संबंध में रहने वाली महिला के द्वारा अथवा उसके प्रतिनिधि द्वारा इस सम्बन्ध में शिकायत दर्ज कराई जा सकती है. निम्न महिला संबंधी शिकायत कर सकते हैं:
  1. पत्नियाँ/ लिव इन पार्टनर्स
  2. बहनें
  3. माताएं
  4. बेटियां
इस प्रकार इस अधिनियम का मकसद पारिवारिक ढांचे के अन्दर रह रही सभी स्त्रियों, चाहे वह आपस में सगी संबंधी, विवाह, दत्तक या वैसे भी साथ में रह रही हों, सभी को सुरक्षा देना है.

घरेलू हादसों के रिपोर्ट

जब पीड़िता घरेलू हिंसा की शिकायत करना चाहती हो तो रिपोर्ट दर्ज की जानी चाहिए. घरेलू हिंसा के विरुध्द संरक्षण नियम, 2006 के फॉर्म 1 में रिपोर्ट का स्वरूप दिया गया है.
पीड़िता की शिकायत में उसकी व्यक्तिगत जानकारियों जैसे नाम, आयु, पता, फोन नंबर, बच्चों की जानकारी, घरेलू हिंसा की घटना का पूरा ब्यौरा, और प्रतिवादी का भी विवरण दिये जाने की जरुरत होती है. जब जरुरत हो तो संबंधी दस्तावेज जैसे चिकित्सकीय विधिक दस्तावेज, डॉक्टर के निर्देश या स्त्रीधन की सूची को रिपोर्ट के साथ संलग्‍न करना चाहिए. शिकायत में पीड़िता को मिली राहत या सहायता का भी विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए. इस रिपोर्ट पर पीड़िता के हस्ताक्षर के साथ-साथ सुरक्षा अधिकारी के भी दस्तखत होने चाहिए. इस रिपोर्ट की प्रति स्थानीय पुलिस थाने और मजिस्ट्रेट को उचित कार्रवाई के लिए दी जानी चाहिए. एक प्रति पीड़िता और एक कॉपी सुरक्षा अधिकारी या सेवा प्रदाता के पास रहनी चाहिए.

घरेलू हिंसा अधिनियम , 2005 के तहत महिलाओं का सरंक्षण

घरेलू हिंसा की शिकार महिला को निम्नलिखित सूची में से एक या एकाधिक सहायता उपलब्ध कराई जा सकती है-
धारा 18 सुरक्षा संबंधी आदेश 
धारा 19 आवास संबंधी आदेश
धारा 20 आर्थिक सहायता
धारा 21 संरक्षण अादेश
दिये जाते हैं। उपरोक्त सभी बातों के अलावा पीड़िता भारतीय दंड संहिता, 1860 धारा 498-A के तहत आरोपी के विरुद्ध आपराधिक मामलों को दर्ज को कराने का भी अधिकार देती है.

राहत पाने की प्रक्रिया

मजिस्ट्रेट :
  1. प्रतिवादी को परामर्श के लिए भेज सकता है.
  2. परिवार कल्याण में रत किसी सामाजिक कार्यकर्त्ता, विशेषकर किसी महिला को सहायता के लिए नियुक्त कर सकता है.
  3. जहाँ आवश्यक हो कार्यवाही के दौरान कैमरे के प्रयोग का आदेश दिया जा सकता है.
मजिस्ट्रेट द्वारा पीड़िता या प्रतिवाद के लिए पारित आदेश के खिलाफ, आदेश जारी होने के 30 दिनों के भीतर सत्र न्यायालय में अपील की जा सकती है.

अधिनियम के तहत कार्यरत संस्थाएं

घरेलू हिंसा के शिकार किसी भी व्यक्ति को कानूनी सहायता, मदद, आश्रय या चिकित्सकीय सहायता देना राज्य की जिम्मेदारी है. इस उद्देश्य के साथ राज्य सरकार को निम्न सस्थाओं को नियुक्त करने के लिए प्राधिकृत किया गया है जो कि पीड़िता को विधि के अंतर्गत सहायता पाने के उसके अधिकार के बारे में जानकारी के साथ सहायता पाने में मदद कर सके.


1. पुलिस अधिकारी
जब भी किसी पुलिस अधिकारी को घरेलू हिंसा की घटना की जानकारी मिलती है तो यह उसका दायित्व है कि आपराधिक दंड प्रक्रिया, 1973 के प्रावधानों के अनुसार जाँच करे. इसके अतिरिक्त, घरेलू हिंसा अधिनियम पुलिस अधिकारी को दायित्व देता है कि वह पीड़िता को
(क) नि:शुल्क विधि सेवाओं के बारे में जानकारी दे;
(ख) इस अधिनियम के तहत उसकी हानि और वेदनाओं के लिए मुआवजे और नुक्सान के एवज में आवास आदेश, सुरक्षा आदेश, संरक्षण आदेश और आर्थिक राहत जैसी सहायता मुहैय्या कराये.
(ग)  सुरक्षा अधिकारियों और सेवा प्रदाताओं की सेवाएं उपलब्ध कराये; और
(घ)  अगर जरूरी हो तो आरोपी व्यक्ति के खिलाफ धारा 498 A के तहत आपराधिक मामला दर्ज करे. (केवल पत्नी ही अपने पति या उसके परिजनों के खिलाफ धारा 498 A के तहत शिकायत कर सकती है. यह अधिकार लिव इन पार्टनर्स को उपलब्ध नहीं है.)
2. सुरक्षा अधिकारी
घरेलू हिंसा अधिनियम में सुरक्षा अधिकारी अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं. ये सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के साथ काम करते हैं. ये योग्य होते हैं और इनके पास सामाजिक क्षेत्र में काम करने का कम से कम तीन सालों का अनुभव होता है. राज्य सरकार ऐसे अधिकारियों को जो ज्यादातर महिलाएं होती हैं, हर जिले में न्यनतम तीन सालों के लिए तैनात करता है और उनके काम का संज्ञान लिया जाता हैे, सुरक्षा अधिकारी का काम पीड़िता की हर कदम पर मदद करना है. वे पीड़िता की घरेलू हिंसा की रिपोर्ट को तयशुदा ढांचे में दर्ज करवाने में मदद करते हैं. वे पीड़ित को उनके अधिकारों की जानकारी देते हैं और इस अधिनियम के तहत सहायता को उपलब्ध करवाने के लिए पीड़िता को आवेदन लिखने में सहायता करते हैं. ये अधिकारी घरेलू हिंसा के मामले के निबटारे में मजिस्ट्रेट की भी सहायता करते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किये गए आदेशों का अनुपालन पीड़िता के हित में हो.
स्थिति का जायजा लेने के और घरेलू हिंसा नियम, 2005 के फॉर्म V के अनुसार सुरक्षा योजना बनाने के लिए भी सुरक्षा अधिकारियों की आवश्यकता होती है. यह सब घरेलू हिंसा की आवृत्ति को रोकने के लिए उचित उपाय की सलाह देने और उन पर अमल करने के उद्देश्य से किया जाता है.
सुरक्षा अधिकारी पीड़िता को हर मुमकिन सहायता देने के लिए बाध्य हैं जिसमें उसके चिकित्सकीय परीक्षण से लेकर, उसके आवागमन और आश्रय स्थल में आवास की व्यवस्था करना शामिल है बशर्ते कि वह अपने घर पर सुरक्षित न हो. सबसे पहले सुरक्षा अधिकारी को कानूनी सहायता सेवाओं, परामर्श, चिकित्सा सहायता, या जरूरतमंद पीड़ित के आश्रय के लिए अपने क्षेत्राधिकार में शामिल सभी सेवा प्रदाताओं की सूची तैयार करनी होती है
3. सेवा प्रदाता 
सेवा प्रदाता महिलाओं के अधिकारों और हितों की सुरक्षा के लिए राज्य सरकार द्वारा पंजीकृत स्वैच्छिक संगठन हैं. ये संगठन निरोधात्मक, सुरक्षात्मक और पुनर्वास का काम करते हैं. ये घरेलू हिंसा की शिकार औरतों की सहायता करने और उन्हें कानूनी, समाजिक, चिकित्सकीय और आर्थिक सहायता देने के लिए उत्तरदायी हैं. ये संस्थाएं निश्चित आवेदन के प्रारूप में DIR को दर्ज करा सकती हैं और उसे सीधे आवश्यक कार्रवाई के लिए सम्बद्ध और मजिस्ट्रेट और सुरक्षा अधिकारी को भेज सकती हैं. अगर पीड़िता चाहे तो ये संस्थाएं उसे चिकत्सकीय सहायता और शरणगृहों में आवास का प्रबंध कर सकती हैं.
राज्य सरकार सेवा प्रदाताओं की सूची बनाती है और उसे क्षेत्र विशेष के सुरक्षा अधिकारी के पास भेजती है ताकि वे आपसी तालमेल के साथ काम कर सकें. किसी क्षेत्र विशेष के सेवा प्रदाताओं की सूची को जानकारी और आवश्यक कार्रवाई के लिए अखबार में प्रकाशित करना होता है या राज्य सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध कराना होता है

परामर्शदाता
परामर्शदाता सेवा प्रदाताओं के ऐसे सदस्य हैं जो कि घरेलू हिंसा के मामलों से निबटने में योग्य एवम अनुभवी होते हैं इसलिए वे घरेलू हिंसा की पीड़िता या दोषी व्यक्ति को परामर्श सेवाएं देने में दक्ष होते हैं.  इस अधिनियम के दौरान अगर मजिस्ट्रेट को ऐसा महसूस होता है कि पीड़िता या पीड़क व्यक्ति को परामर्श की आवश्यकता है तो वह उन्हें एकल या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाताओं द्वारा उपलब्ध कराये गए परामर्शदाता के पास परामर्श सत्रों में भाग लेने का सीधे तौर पर निर्देश जारी कर सकता है. परामर्शदाता दोनों पक्षों के लिए सहज स्थान पर मुलाकात का आयोजन करता है और वह पीड़ित की शिकायत के निवारण के लिए उपाय सुझाता है और जहाँ पर पीड़ित राजी हो, वह वहाँ पर समझौते का भी प्रबंध करता है. इस प्रकार के परामर्श का उद्देश्य पीड़ित व्यक्ति के विरुद्ध घरेलू हिंसा के उन्मूलन के उपायों को खोजना और विकसित करना है,

कल्याण विशेषज्ञ
कल्याण विशेषज्ञ पारिवारिक मामलों को सुलझाने में दक्षता और विशेषज्ञता प्राप्त व्यक्ति होते हैं. इस अधिनियम के तहत आवश्यकता पड़ने पर मजिस्ट्रेट कल्याण विशेषज्ञों की सहायता ले सकते हैं. इस अधिनियम के तहत जहाँ तक संभव हो महिला विशेषज्ञों का ही चुनाव किया जाता है.

आश्रय और चिकित्सा सुविधा प्रभारी
घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 6 और 7 के अनुसार आश्रय और चिकित्सा सुविधा प्रभारी का दायित्व है कि स्वय पीड़िता या सुरक्षा अधिकारी या उसकी ओर से सेवा प्रदाता के अनुरोध के आधार पर पीड़िता को आश्रय और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराये.

अधिवक्‍ता (वकील) की भूमिका
यदि पीड़िता चाहे तो सीधे ही अधिवक्‍ता की सहायता से माननीय न्‍यायालय के समक्ष घरेलू‍ हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत आरोपियों पर प्रकरण दर्ज कर सकती हैैै, जहां न्‍यायालय से सीधे ही पीड़िता को न्‍याय मिल  सकता है।

शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
पटेल मार्ग, शुजालपुर मण्‍डी, जिला शाजापुर (म.प्र.)
मोबाईल नम्‍बर 09479836178