Saturday, 26 August 2017

अस्थायी निषेधाज्ञा या वादकालीन निषेधाज्ञा 

अक्‍सर न्यायालयों में वाद पत्र के साथ अस्थायी निषेधाज्ञा का आवेदन पत्र प्रस्तुत होता है और इस आवेदन पत्र के निराकरण में वादी पक्ष को आवश्‍यकता निषेधाज्ञा पाने की होती हैं वहीं प्रतिवादी पक्ष आवेदन पत्र के जवाब और दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए समय की प्रार्थना करते है और कई बार न्यायालय में ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती हैं। अस्थायी व्यादेश के बारे में आदेश 39 नियम 1 एवं 2 व्‍यवहार प्रक्रिया संहिता तथा धारा 94 (सी) व्‍यवहार प्रक्रिया संहिता में तथा एकपक्षीय अस्थायी व्यादेश के संबंध में आदेश 39 नियम 3 एवं 3ए व्‍यवहार प्रक्रिया संहिता में प्रावधान है तथा आदेश 39 नियम 1 एवं 2 व्‍यवहार प्रक्रिया संहिता में स्थानीय संशोधन भी ध्यान रखने योग्य हैं।

स्थगन आदेश कैसे प्राप्त कर सकते हैं -

स्थगन आदेश का मतलब यह है कि जिस काम पर रोक लगा दी गई है स्थगन आदेश के पारित होने की तिथि से स्थिर रहेगा, और इसका मतलब यह नहीं है कि आदेश अस्तित्व से बाहर है। कार्यवाही पर पूरी तरह से या सशर्त रूप से रोक लगा दी जा सकती है। अदालत निहित शक्तियों अस्थायी रूप से किसी भी कार्रवाई पर रोक लगा सकती है।

प्रॉपर्टी पर निर्माण पर स्थगन आदेश -

अदालत आदेश दे सकती है और अस्थायी निषेधाज्ञा प्रदान कर सकती है कि अमूक सम्‍पत्ति पर न्‍यायालय के आगामी आदेश तक कोई निर्माण कार्य नहीं किया जावेगा, और सम्‍पत्ति जिस अवस्‍था में वैसी ही अवस्‍था में रहेगी, न्‍यायालय का सम्‍पूर्ण समाधान होने पर आगामी आदेश प्रदान किया जावेगा, और प्रकरण के अंतिम निराकरण तक अमूक व्‍यक्ति या उसका कोई अभिकर्ता निर्माण कार्य नहीं करेगा। अदालत इस तरह के कृत्य को नियंत्रित करने के लिए अन्य आदेश दे सकती है प्रॉपर्टी की बिक्री, हटाने या हानिकारक गतिविधि को रोकने के लिए, निपटारे तक या अगले आदेश तक स्‍टे लिया जा सकता है।

स्थगन आदेश के लिए महत्‍वपूर्ण तथ्‍य -

स्‍थगन आदेश के लिए तीन महत्‍वपूर्ण तथ्‍य माने गये हैं - (1) प्रथम दृष्‍टया प्रकरण (2) सुविधा का संतुलन (3) अपूर्णीय क्षति इन तत्‍वों को हम विस्‍तार से समझेंगे-

प्रथम दृष्‍टया प्रकरण - 

जो पक्ष स्‍थगन आदेश चाहता है उसका मामला प्रथम दृष्टि में ऐसा दिखना चाहिए कि, वास्‍तव में मामला स्‍थगन आदेश चाहने वाले के पक्ष में ही प्रबल है, और प्रथम दृष्टि में ही न्‍यायालय को ऐसा आभास हो जाना चाहिए दस्‍तावेज के आधार पर एवं प्रकरण में आई साक्ष्‍य के आधार मामला देखने में स्‍थगन चाहने वाले के पक्ष में है।

सुविधा का संतुलन - 


जो पक्ष स्‍थगन आदेश चाहता है, वास्‍तव में सुविधा का संतुलन स्‍थगन चाहने वाले के पक्ष में होना चाहिए जैसे सम्‍पत्ति स्‍थगन चाहने वाले के कब्‍जे हो, अगर खेत हो तो उसमें स्‍थगन चाहने वाले व्‍यक्ति की फसल खडी हो, या अन्‍य कोई भी स्थिति हो सकती है, जिसमें सुविधा का संतुलन स्‍थगन चाहने वाले के पक्ष में प्रमाणित होना चाहिए।

अपूर्णीय क्षति - 



जो पक्ष स्‍थगन आदेश चाहता है, उसे ऐसी आंशका होना चाहिए कि, यदि न्‍यायालय द्वारा स्‍थगन आदेश नहीं दिया गया तो स्‍थगन चाहने वाले को ऐसी क्षति होगी जिसकी पूर्ति भविष्‍य में धन के रूप में नहीं की जा सकेगी।

इन तीनों तथ्‍यों का उल्‍लेख स्‍थगन चाहने वाले पक्ष को अपने स्‍थगन आवेदन में करना आवश्‍यक है, और यह भी बताना आवश्‍यक है कि, किस प्रकार से उसका मामला प्रथम दृष्‍टया प्रबल है, किस प्रकार से सुविधा का संतुलन उसके पक्ष में है, और यदि स्‍थगन आदेश नहीं दिया गया तो स्‍थगन चाहने वाले को ऐसी क्षति होगी जिसकी पूर्ति भविष्‍य में धन के रूप में नहीं की जा सकेगी। इन सभी तथ्‍यों को प्रमाणित करने का भार भी स्‍थगन चाहने वाले के पक्ष में होता है।

IPC 307

भारतीय दण्‍ड संहिता की धारा 307 -

जो कोई किसी कार्य को ऐसे आशय या ज्ञान से और ऐसी परिस्थितियों में करेगा कि यदि वह उस कार्य द्वारा मॄत्यु कारित कर देता तो वह हत्या का दोषी होता, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा, और यदि ऐसे कार्य द्वारा किसी व्यक्ति को उपहति कारित हो जाए, तो वह अपराधी या तो 2[आजीवन कारावास] से या ऐसे दण्ड से दण्डनीय होगा, जैसा एतस्मिनपूर्व वर्णित है । 
आजीवन सिद्धदोष द्वार प्रयत्न--3[जबकि इस धारा में वर्णित अपराध करने वाला कोई व्यक्ति 1[आजीवन कारावास] के दण्डादेश के अधीन हो, तब यदि उपहति कारित हुई हो, तो वह मॄत्यु से दण्डित किया जा सकेगा।] 
दृष्टांत 
(क) य का वध करने के आशय से क उस पर ऐसी परिस्थितियों में गोली चलाता है कि यदि मॄत्यु हो जाती, तो क हत्या का दोषी होता । क इस धारा के अधीन दण्डनीय है । 
(ख) क कोमल वयस के शिशु की मॄत्यु करने के आशय से उसे एक निर्जन स्थान में अरक्षित छोड़ देता है । क ने उस धारा द्वारा परिभाषित अपराध किया है, यद्यपि परिणामस्वरूप उस शिशु की मॄत्यु नहीं होती । 
(ग) य की हत्या का आशय रखते हुए क एक बन्दूक खरीदता है और उसको भरता है । क ने अभी तक अपराध नहीं किया है । य पर क बन्दूक चलाता है । उसने इस धारा में परिभाषित अपराध किया है, और यदि इस प्रकार गोली मार कर वह य को घायल कर देता है, तो वह इस धारा 4[के प्रथम पैरे] के पिछले भाग द्वारा उपबन्धित दण्ड से दण्डनीय है । 
(घ) विष द्वारा य की हत्या करने का आशय रखते हुए क विष खरीदता है, और उसे उस भोजन में मिला देता है, जो क के अपने पास रहता है; क ने इस धारा में परिभाषित अपराध अभी तक नहीं किया है । क उस भेजन को य की मेंजा पर रखता है, या उसको य की मेंज पर रखने के लिए य के सेवकों को परिदत्त् करता है । क ने इस धारा में परिभाषित अपराध किया है ।
   हत्‍या करने का प्रयत्‍न- अब परिवादी भोजन कर अपनी झुग्‍गी में लेटा था, तभी अभियुक्‍त ने उसे किसी अन्‍य व्‍यक्ति के माध्‍यम से बाहर बुलवाया और जैसे ही परिवादी बाहर आया अभियुक्‍त ने उसे मारने के आशय से उसके सिर पर चाकू से दो बार हमला किया, और तदद्वारा उसके सिर पर क्षतियां कारित की, जब अभियुक्‍त परिवादी के पास योजनाबद्ध रीति से आया तथा उसके सिरोवल्‍क जैसे महत्‍वपूर्ण अंग पर चाकू से वार किया और उसके सिर पर काफी गंभीर लम्‍बी क्षति कारित की, जिससे उसका जीवन खतरे में पड गया, तब यह स्‍वमेव स्‍पष्‍ट और प्रकट है कि, अपीलार्थी ने परिवादी के शिरोवल्‍क पर चाकू से वार उसको मारने के आशय से किया था, अभियुक्‍त को धारा 307 भारतीय दण्‍ड संहिता के आधीन दोषसिद्ध किया गया (प्रेमनारायण विरूद्ध म०प्र० राज्‍य 2006(3) JLJ103)
धारा 307 की व्‍याख्‍या -
भारतीय दण्‍ड संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं, किसी व्यक्ति पर हत्या के इरादे से चोट पहुंचाने पर केस दर्ज किया जाता है। इसकी सेशन कोर्ट या इससे ऊपर की अदालत में सुनवाई होती है। यह गैर जमानती अपराध है क्या है भारतीय दंड संहिता
भारतीय दण्ड संहिता यानी Indian Penal Code, IPC भारत में यहां के किसी भी नागरिक द्वारा किये गये कुछ अपराधों की परिभाषा और दण्ड का प्रावधान करती है. लेकिन यह जम्मू एवं कश्मीर और भारत की सेना पर लागू नहीं होती है. जम्मू एवं कश्मीर में इसके स्थान पर रणबीर दंड संहिता (RPC) लागू होती है.

अंग्रेजों की देन है आईपीसी
भारतीय दण्ड संहिता यानी आईपीसी सन् 1862 में ब्रिटिश काल के दौरान लागू हुई थी. इसके बाद समय-समय पर इसमें संशोधन होते रहे. विशेषकर भारत के स्वतन्त्र होने के बाद इसमें बड़ा बदलाव किया गया. पाकिस्तान और बांग्लादेश ने भी भारतीय दण्ड संहिता को ही अपनाया. लगभग इसी रूप में यह विधान तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता के अधीन आने वाले बर्मा, श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई आदि में भी लागू कर दिया गया था.

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भारत एक ऐसा देश है, जिसकी 80 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है, इस आधुनिक युग में भी ग्रामीण जन बहुत ही पिछडे हुए हैं, भारत में कब कौन सा विधेयक पास हो गया, कब कोई कानून बना दिया गया है, इसके बेखबर ग्रामीण जन अपना जीवन यापन कर रहे हैं, उन्‍हें भारत के किसी कानून की कोई जानकारी नहीं है, यहां तक शहरी लोगों को भी कानून से संबंधित जानकारी नहीं होने से उन्‍हें परेशान होना पडता है, हमारा उद्देश्‍य है कि, उन्‍हें कानून से संबंधित जानकारी मिल सके, और वे किसी धोखाधडी का शिकार न हों, कानूनी जानकारी देने के लिए इस बेवसाईट का निर्माण किया गया है, अधिकतर लोग कानून को आसानी से समझ सके इसलिए हिन्‍दी में ही सम्‍पूर्ण जानकारी देने का मेरा प्रयास है। आप सभी के सहयोग एवं सलाह से इस बेवसाईट को बेहतर बनाया जा सकता है। 

शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
पटेल मार्ग, शुजालपुर मण्‍डी, 
जिला शाजापुर (म०प्र०)
मोबाईल नम्‍बर 09479836178

Friday, 25 August 2017

Article 370 Constitution of India

भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 370 के बारे में-

370. जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य के संबंध में अस्‍थाई उपबंध- 

(1) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, 
(क) अनुच्‍छेद 238 (सन 1956 में हटा दिया गया है) के उपबंध जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य के संबंध में लागू नहीं होगें।
(ख) जम्‍मू-कश्‍मीर राज्‍य के लिए विधि बनाने की संसद की शक्ति-
(i) संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी, जिनको राष्‍ट्रपति, उस राज्‍य की सरकार से परामर्श करके, उन विषयों के तत्‍स्‍थानी विषय घोषित कर दे, जो भारत डोमिनियम (अधिराज्‍य) में उस राज्‍य के अधिमिलन को शासित करने वाले अधिमिलन पत्र में ऐसे विषयों के रूप में विनिर्दिष्‍ट हैं, जिसके संबंध में डोमिनियम विधान मण्‍डल उस राज्‍य के लिए विधि बना सकता है, और
-ii) उक्‍त विषयों के उन अन्‍य विषयों तक सीमित होगी, जो राष्‍ट्रपति उस राज्‍य की सरकार की सहमति से, आदेश द्वारा, विनिर्दिष्‍ट करे।
स्पष्‍टीकरण- इस अनुच्‍छेद के प्रयोजनों के लिए, उस राज्‍य की सरकार से वह व्‍यक्ति अभिप्रेत है, जिसे राष्‍ट्रपति से, जम्‍मू कश्‍मीर के महाराजा की 5 मार्च 1948 की उदघोषणा के अधीन तत्‍समय पदस्‍थ मंत्री परिषद की सलाह पर कार्य करने वाले जम्‍मू कश्‍मीर के महाराजा के रूप में तत्‍समय मान्‍यता प्राप्‍त थी।
(ग) अनुच्‍छेद (1) और इस अनुच्‍छेद के उपबंध उस राज्‍य के संबंध में लागू होंगे।
(घ) इस संविधान के ऐसे अन्‍य उपबंध ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, जो राष्‍ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्‍ट करे, उस राज्‍य के संबंध में लागू होंगे।

परन्‍तु ऐसा कोई आदेश जो उपखण्‍ड (ख) के पैरा (i) में निर्दिष्‍ट राज्‍य के अधिमिलन पत्र में विनिर्दिष्‍ट विषयों से संबंधित है, उस राज्‍य की सरकार से परामर्श करके ही किया जाएगा, अन्‍यथा नहीं।
परन्‍तु यह और कि ऐसा कोई आदेश जो अंतिम पूर्ववर्ती परंतुक में निर्दिष्‍ट विषयों से भिन्‍न विषयों से संबंधित है, उस सरकार की सहमति से ही किया जाएगा, अन्‍यथा नहीं।
(2)  यदि खण्‍ड (1) के उपखण्‍ड (ख) के पैरा (ii) में या उस खण्‍ड के उपखण्‍ड (घ) के दूसरे परंतुक में निर्दिष्‍ट उस राज्‍य की सरकार की सहमति, उस राज्‍य का संविधान बनाने के प्रयोजन के लिए संविधान सभा के बुलाये जाने से पहले दी जाए तो उसे ऐसा संविधान सभा के समक्ष ऐसे विनिश्‍चय के लिए रखा जाएगा जो वह उस पर करे।
(3) इस अनुच्‍छेद के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, राष्‍ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा घोषणा कर सकेगा, कि यह अनुच्‍छेद प्रवर्तना में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और उपांतरणों सहित ही और ऐसी तारीख से, प्रवर्तन में रहेगा, जो वह विनिर्दिष्‍ट करे।
 परन्‍तु राष्‍ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले खण्‍ड (2) में निर्दिष्‍ट उस राज्‍य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्‍यक होगी।


धारा ३७० के तहत जो प्रावधान है उनमें समय समय पर परिवर्तन किया गया है जिनका आरम्भ १९५४ से हुआ। १९५४ का महत्‍व इस लिये है कि १९५३ में उस समय के कश्मीर के वजीर-ए-आजम शेख महम्मद अब्दुल्ला, जो जवाहरलाल नेहरू के अंतरंग मित्र थे, को गिरफ्तार कर बंदी बनाया था। ये सारे संशोधन जम्मू-कश्मीर के विधानसभा द्वारा पारित किये गये हैं।
संशोधित किये हुये प्रावधान इस प्रकार के हैं-
  • (अ) १९५४ में चुंगी, केंद्रीय अबकारी, नागरी उड्डयन और डाकतार विभागों के कानून और नियम जम्मू-कश्मीर को लागू किये गये।
  • (आ) १९५८ से केन्द्रीय सेवा के आई ए एस तथा आय पी एस अधिकारियों की नियुक्तियाँ इस राज्य में होने लगीं। इसी के साथ सी ए जी (CAG) के अधिकार भी इस राज्य पर लागू हुए।
  • (इ) १९५९ में भारतीय जनगणना का कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू हुआ।
  • (र्ई) १९६० में सर्वोच्च न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलों को स्वीकार करना शुरू किया, उसे अधिकृत किया गया।
  • (उ) १९६४ में संविधान के अनुच्छेद ३५६ तथा ३५७ इस राज्य पर लागू किये गये। इस अनुच्छेदों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक व्यवस्था के गड़बड़ा जाने पर राष्ट्रपति का शासन लागू करने के अधिकार प्राप्त हुए।
  • (ऊ) १९६५ से श्रमिक कल्याण, श्रमिक संगठन, सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा सम्बन्धी केन्द्रीय कानून राज्य पर लागू हुए।
  • (ए) १९६६ में लोकसभा में प्रत्यक्ष मतदान द्वारा निर्वाचित अपना प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया।
  • (ऐ) १९६६ में ही जम्मू-कश्मीर की विधानसभा ने अपने संविधान में आवश्यक सुधार करते हुए- ‘प्रधानमन्त्री’ के स्थान पर ‘मुख्यमन्त्री’ तथा ‘सदर-ए-रियासत’ के स्थान पर ‘राज्यपाल’ इन पदनामों को स्वीकृत कर उन नामों का प्रयोग करने की स्वीकृति दी। ‘सदर-ए-रियासत’ का चुनाव विधानसभा द्वारा हुआ करता था, अब राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होने लगी।
  • (ओ) १९६८ में जम्मू-कश्मीर के उच्च न्यायालय ने चुनाव सम्बन्धी मामलों पर अपील सुनने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को दिया।
  • (औ) १९७१ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २२६ के तहत विशिष्ट प्रकार के मामलों की सुनवाई करने का अधिकार उच्च न्यायालय को दिया गया।
  • (अं) १९८६ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद २४९ के प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू हुए।
  • (अः) इस धारा में ही उसके सम्पूर्ण समाप्ति की व्यवस्था बताई गयी है। धारा ३७० का उप अनुच्छेद ३ बताता है कि ‘‘पूर्ववर्ती प्रावधानों में कुछ भी लिखा हो, राष्ट्रपति प्रकट सूचना द्वारा यह घोषित कर सकते है कि यह धारा कुछ अपवादों या संशोधनों को छोड दिया जाये तो समाप्त की जा सकती है।
इस धारा का एक परन्तुक (Proviso) भी है। वह कहता है कि इसके लिये राज्य की संविधान सभा की मान्यता चाहिये। किन्तु अब राज्य की संविधान सभा ही अस्तित्व में नहीं है। जो व्यवस्था अस्तित्व में नहीं है वह कारगर कैसे हो सकती है?
जवाहरलाल नेहरू द्वारा जम्मू-कश्मीर के एक नेता पं॰ प्रेमनाथ बजाज को २१ अगस्त १९६२ में लिखे हुये पत्र से यह स्पष्ट होता है कि उनकी कल्पना में भी यही था कि कभी न कभी धारा ३७० समाप्त होगी। पं॰ नेहरू ने अपने पत्र में लिखा है-
‘‘वास्तविकता तो यह है कि संविधान का यह अनुच्छेद, जो जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दर्जा दिलाने के लिये कारणीभूत बताया जाता है, उसके होते हुये भी कई अन्य बातें की गयी हैं और जो कुछ और किया जाना है, वह भी किया जायेगा। मुख्य सवाल तो भावना का है, उसमें दूसरी और कोई बात नहीं है। कभी-कभी भावना ही बडी महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती है।’’

जम्‍मू-कश्‍मीर को प्राप्‍त विशेष अधिकारों की सूची

1. जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है।
2. जम्मू-कश्मीर का राष्ट्रध्वज अलग होता है।
3. जम्मू - कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है जबकि भारत के अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
4. जम्मू-कश्मीर के अन्दर भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं होता है।
5. भारत के उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू-कश्मीर के अन्दर मान्य नहीं होते हैं।
6. भारत की संसद को जम्मू-कश्मीर के सम्बन्ध में अत्यन्त सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है।
7. जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उस महिला की नागरिकता समाप्त हो जायेगी। इसके विपरीत यदि वह पकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जायेगी।
8. धारा 370 की वजह से कश्मीर में भारत के वे कानून लागू नहीं होते जो भारत सरकार से पास होने के बाद भी कश्‍मीर की सरकार द्वारा पास नहीं कर दिये जाऐं, और यहीं कारण है कि, जम्‍मू कश्‍मीर में RTI लागू नहीं है, RTE लागू नहीं है, CAG लागू नहीं है।
9. कश्मीर में महिलाओं पर शरियत कानून लागू है।
10. कश्मीर में पंचायत के अधिकार नहीं।
11. कश्मीर में चपरासी को 2500 रूपये ही मिलते है।
12. कश्मीर में अल्पसंख्यकों [हिन्दू-सिख] को 16% आरक्षण नहीं मिलता।
13. धारा 370 की वजह से कश्मीर में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं।
14. धारा 370 की वजह से ही कश्मीर में रहने वाले पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है।

2011 की जनगणना अनुसार जम्मू शहर में 81.19% अनुयायियों के साथ हिंदू धर्म बहुसंख्यक धर्म है। जम्मू शहर में सिख धर्म का दूसरा सबसे लोकप्रिय धर्म 8.83% है। जम्मू शहर में, इस्लाम के बाद 7.95%, जैन धर्म 0.33%, क्रिरिअति 8.83% और बौद्ध धर्म 8.83% है। लगभग 0.02% ने 'अन्य धर्म' कहा, लगभग 0.28% ने 'कोई विशेष धर्म' कहा।
DescriptionTotalप्रतिशत
हिन्दू467,79581.19 %
सिख50,8708.83 %
मुसलमान45,8157.95 %
ईसाई7,8001.35 %
जैन1,9100.33 %
कोई नहीं1,6110.28 %
बुद्ध2730.05 %
अन्य1240.02 %
 देश का प्रत्‍येक नागरिक चाहता है कि, भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी के कार्यकाल में धारा 370 पूरी तरह से समाप्‍त कर दी जावे, एवं कश्‍मीर को भारत के अन्‍य राज्‍यों की तरह दर्जा दिया जावे, भारत एक संविधान, एक कानून, और एक ही परचम की नीचे उत्‍तरोत्‍तर उन्‍नति करे, और तब ही सही मायने में कहा जा सकेगा कि, काश्‍मीर से कन्‍याकुमारी तक पूरा भारत एक है।

शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
पटेल मार्ग, शुजालपुर मण्‍डी, जिला शाजापुर (म.प्र.)
मोबाईल नम्‍बर 09479836178

Saturday, 19 August 2017

वसीयत कैसे करें

वसीयत को लेकर अक्‍सर लोगों में भ्रांतिया होती हैं, कि वसीयत क्‍या है, वसीयत कैसे करें, क्‍यों करें, क्‍या वसीयत के लिए स्‍टाम्‍प आवश्‍यक है, कहां वसीयत कराऐं, कितना खर्च आयेगा, मेरी सम्‍पत्ति मेरे हाथ से तो नहीं निकल जायेगी, इत्‍यादि प्रश्‍न व्‍यक्ति के मन में चलते रहते हैं, इन सभी प्रश्‍नों के उत्‍तर के रूप में यह लेख तैयार किया गया है, जिसका अवलोकन आपको वसीयत के बारे में संतुष्‍ट करेगा।

वसीयत क्‍या है- 

वसीयत को अंग्रेजी में Will कहते हैं, वसीयत एक ऐसा दस्‍तावेज है, जिसे तैयार करके व्‍यक्ति अपने जीवनकाल में अपनी सम्‍पत्ति की व्‍यवस्‍था करता है, एवं निर्धारित करता है कि, जब तक मैं जीवित हूं तब तक सम्‍पत्ति मेरी रहेगी, एवं सम्‍पत्ति से संबंधित समस्‍त अधिकार मेरे पास रहेंगे, एवं मेरी मृत्‍यु पश्‍चात मेरी सम्‍पत्ति वसीयत अनुसार वसीयत में उल्‍लेखित व्‍यक्ति अथवा व्‍यक्तियों को दे दी जाए। कानून के अनुसार कोई भी वसीयत उस दिनांक व समय को प्रभावशील मानी जाती है, जिस दिनांक व समय को वसीयत करने वाले की मृत्‍यु होती है। मृत्‍यु के पूर्व वसीयत मात्र एक कागज का टुकडा है, जिसका कोई मूल्‍य नहीं है, और न ही ऐसे कागज के आधार पर किसी भी व्‍यक्ति को सम्‍पत्ति में कोई अधिकार उत्‍पन्‍न होता है।

वसीयत कौन कर सकता है-

 कोई भी वयस्‍क व्‍यक्ति अपनी वसीयत लिख सकता है, वसीयत करने के लिए किसी वकील की या किसी एक्‍सपर्ट की आवश्‍यकता नहीं होती है, हालांकि वसीयत किसी कानूनी दावपेंच में न उलझे इसलिए किसी वकील से अथवा एक्‍सपर्ट से राय लेकर वसीयत किया जाना उचित होता है।

वसीयत कैसे करें - 

, वसीयत साधारण कागज पर भी लिखी जा सकती है, इसका नोटरी या रजिस्‍टर्ड होना भी आवश्‍यक नहीं होता है, और जरूरी नहीं है कि, वसीयत स्‍टाम्‍प पर लिखी जाए। स्‍टाम्‍प पर वसीयत करने का मात्र इतना उद्देश्‍य ही होता है कि, स्‍टाम्‍प का कागज मजबूत और अच्‍छा होता है, इसके अतिक्‍त स्‍टाम्‍प पर वसीयत करने का कोई कारण नहीं है। इसलिए सबसे कम मूल्‍य के स्‍टाम्‍प पर भी वसीयत की जा सकती है। कोई भी व्‍यक्ति अपने जीवनकाल में जितने बार चाहे वसीयत कर सकता है, किन्‍तु वसीयतकर्ता द्वारा की गई  अंतिम वसीयत मान्‍य होती है। वसीयत में दो साक्षीगण (गवाह) का होना आवश्‍यक है, यदि वसीयतकर्ता अंगूठा लगाता है, तो वसीयत पर गवाहों के फोटो लगाये जाने चाहिए। वसीयत पर गवाहों के समक्ष वसीयत करने वाले के हस्‍ताक्षर अथवा अंगूठा (बांये हाथ का) लगाया जाना चाहिए। वसीयत नोटरी से तस्‍दीक करवाना अथवा रजिस्‍टर्ड करवाना भी आवश्‍यक नहीं है, किन्‍तु वसीयत नोटरी से तस्‍दीक करवाने से अथवा रजिस्‍टर्ड वसीयत करवाने से यह लाभ होता है कि, जिसके पक्ष में वसीयत की जा रही है, वह वसीयतकर्ता की मृत्‍यु के पश्‍चात वसीयत को आसानी प्रमाणित कर सकता है। 

वसीयत में क्‍या-क्‍या लिखा जा सकता है- 

वसीयत में यह स्‍पष्‍ट करना आवश्‍यक है कि, मेरे द्वारा लिखी जा रही वसीयत मेरे मरने के बाद प्रभावशील होगी। वसीयत में लिखा जा सकता है कि, कौन-कौन सी सम्‍पत्ति किसे-किसे प्राप्‍त होगी, और सम्‍पत्ति प्राप्‍त करने के लिए क्‍या-क्‍या योग्‍यताऐं धारण करनी होगी, मेरी सम्‍पत्ति में मेरे पुत्र को हिस्‍सा मिलेगा या नहीं या किस पुत्र को कितना हिस्‍सा प्राप्‍त होगा, पुत्री को कितना हिस्‍सा मिलेगा, या नहीं मिलेगा, पत्‍नी के भरण पोषण की व्‍यवस्‍था, मरने के बाद क्रिया कर्म कौन करेगा, मुखाग्नि कौन देगा, तीसरा अथवा तैरहवी करना है या नहीं, मृत्‍यु के पश्‍चात अंगों दान का दान, मंदिर में कितना दान देना है, कौन से रकम जेवर किसे देना है, बैंक खाते का उत्‍तराधिकारी कौन होगा, चल रहे प्रकरणों में पक्षकार बनने के लिए कौन उत्‍तराधिकारी होगा। अर्थात किसे क्‍या मिलेगा, इसका उल्‍लेख वसीयत में किया जा सकता है।

स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति आवश्‍यक-

सम्‍पत्ति की वसीयत करते समय एक बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि, वसीयत केवल स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति की ही की जा सकती है, दूसरे की सम्‍पत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती, और न ही पैतृक सम्‍पत्ति में अपने हिस्‍से से अधिक सम्‍पत्ति की वसीयत की जा सकती है। स्‍वअर्जित सम्‍पत्ति से तात्‍पर्य ऐसी सम्‍पत्ति से है जो वसीयत करने वाले ने स्‍वयं अर्जित की हो। वसीयत केवल उस संपत्ति की ही की जा सकती है जिसे अपने जीवित रहते दान रीति द्वारा अंतरित किया जा सकता हो ,ऐसी संपत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती जिससे पत्नी का कानूनी अधिकार और किसी का भरण-पोषण का अधिकार प्रभावित होता है .
इस हेेेेतु हिन्दू विधि में दो पद्धतियाँ है -
[१] -दायभाग पद्धति- दायभाग पद्धति बंगाल तथा आसाम में प्रचलित हैं।
[२] -मिताक्षरा पद्धति-मिताक्षरा पद्धति भारत के अन्य प्रांतों में प्रचलित है।

मिताक्षरा विधि में संपत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता व् उत्तराधिकार से होता है और दायभाग में उत्तराधिकार से। मिताक्षरा विधि का यह उत्तरजीविता का नियम संयुक्त परिवार की संपत्ति के सम्बन्ध में लागू होता है तथा उत्तराधिकार का नियम गत स्वामी की पृथक संपत्ति के संबंध में .मिताक्षरा पद्धति में दाय प्राप्त करने का आधार रक्त सम्बन्ध हैं और दाय भाग में पिंडदान .किन्तु अब वर्तमान विधि में हिन्दू उत्तराधिकार में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा ३० के अनुसार प्रत्येक मिताक्षरा सहदायिक अपने अविभक्त सहदायिकी अंश को इच्छापत्र द्वारा निवर्तित करने के लिए सक्षम हो गया है .अतः अब निम्न संपत्ति की वसीयत की जा सकती है - [मिताक्षरा विधि से ][१] स्वअर्जित सम्पदा[२] स्त्रीधन[३] अविभाज्य सम्पदा [रूढ़ि से मना न किया गया हो ][ दायभाग विधि से ][१] वे समस्त जो मिताक्षरा विधि से अंतरित हो सकती हैं ,[२] पिता द्वारा स्वअर्जित अथवा समस्त पैतृक संपत्ति ,[३] सहदायिक ,अपने सहदायिकी अधिकार को .वसीयत को कभी भी वसीयत कर्ता द्वारा परिवर्तित या परिवर्धित किया जा सकता है।.

किन स्थितियों में वसीयत निरर्थक हो जावेगी
भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के अगर संपत्ति का कोई हिस्सा ऐसे व्यक्ति को स्थानांतरित करने की बात हो, जो बतौर गवाह वसीयत पर हस्ताक्षर कर रहा हो, तो वसीयत बेकार साबित हो सकती है। अर्थात वसीयत पर हस्‍ताक्षर करने वाले व्‍यक्ति को वसीयत में वर्णित सम्‍पत्ति नहीं मिलेगी, एवं वसीयत में वर्णित अन्‍य व्‍यक्तियों के लिए यह वसीयत बेकार नहीं होगी, कानूनी प्रावधानों के मुताबिक, अगर कोई प्रॉपर्टी उस व्यक्ति या उसके पति/पत्नी को स्थानांतरित की जा रही हो, जिसने हस्ताक्षर किया है, तब यह बेकार हो जाता है। हंसराज का कहना है, 'इसके पीछे तर्क यही है कि इसमें हितों का टकराव का मामला बनता है। इससे साफ है कि जो व्यक्ति हस्ताक्षर कर रहा है, वह वसीयत के बारे में सब कुछ जानता था।' अस्पष्ट शब्दों के चयन से भी वसीयत बेकार हो सकती है। दूसरे कारणों में वसीयत में ऐसी शर्त को शामिल करना, जो संभव नहीं हो, तब भी वसीयत बेकार हो जायेगी।

वसीयत की आवश्‍यकता -

यदि कोई व्‍यक्ति वसीयत किये बिना ही मृत्‍यु को प्राप्‍त होता है, तो उसकी सम्‍पत्ति उत्‍तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत उत्‍तराधिकारों में बांट दी जाती है, वसीयत को दूसरे शब्‍दों में अंतिम इच्‍छापत्र कहते हैं, और प्रत्‍येक व्‍यक्ति की अंतिम इच्‍छा की पूर्ति करना धार्मिक कृत्‍य माना जाता है, इसी को कानूनी रूप देकर वसीयत के रूप में उल्‍लेखित किया गया है। इसलिए कोई व्‍यक्ति अंतिम इच्‍छा अनुसार जो भी चाहता है, अथवा लिखित में अंतिम इच्‍छा बताता है, तो उसकी वैध इच्‍छाओं की पूर्ति करते हुए न्‍यायालय वसीयतकर्ता की इच्‍छानुसार ही अपने निर्णय देता है, अथवा वसीयतकर्ता की भावना को ध्‍यान में रखकर कार्यवाही करने का आदेश देता है। वसीयत करने की आवश्‍यकता नहीं है, किन्‍तु कोई अंतिम इच्‍छा हो अथवा सम्‍पत्ति की व्‍यवस्‍था करने की अथवा मृत्‍यु पश्‍चात उत्‍तराधिकारियों में झगडे न हो, ऐसी भावना हो तो वसीयत अवश्‍य करें। 


शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
पटेल मार्ग, शुजालपुर मण्‍डी, जिला शाजापुर (म.प्र.)
मोबाईल नम्‍बर 09479836178


Friday, 18 August 2017

सम्‍पत्ति खरीदते समय याद रखने योग्‍य बातें

सम्पत्ति दो तरह की होती है, चल व अचल सम्पत्ति। जो वस्तुऐं भूमि से जुड़ी रहती हैं, अचल सम्पत्ति कहलाती हैं, चल सम्पत्ति का नुकसान एक बार सहा जा सकता है, लेकिन अचल सम्पत्ति का नुकसान सम्पत्ति से संबंधित व्यक्ति के साथ-साथ उसके परिवार के भविष्य को संकट में डाल देता है। सम्पत्ति खरीदते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है- 
दोस्‍तों यदि हम कोई मकान, दुकान या कोई भी अचल सम्‍पत्ति खरीदने जा रहे हैं तो हमें सबसे पहले यह ध्‍यान रखना चाहिए कि, इसके लिए कानूनी प्रक्रियाऐं कौन-कौन सी हैं, इसके लिए हम बात करते हैं, सम्‍पत्ति अंतरण अधिनियम 1882 की धारा 54 के बारे में-
धारा 54 विक्रय की परिभाषा- विक्रय ऐसी कीमत के बदले में स्‍वामित्‍व का अंतरण है, जो दी जा चुकी हो या जिसके देने का वचन दिया गया हो, या जिसका कोई भाग दे दिया गया हो, और किसी भाग के देने का वचन दिया गया हो।
विक्रय कैसे किया जाता है- यदि कोई अचल सम्‍पत्ति जिसका मूल्‍य 100/- रूपये से अधिक है, तो वह अचल सम्‍पत्ति रजिस्‍टर्ड विक्रयपत्र द्वारा ही क्रय या विक्रय की जा सकती है, इसके अलावा 100/- रूपये से कम मूल्‍य की अचल सम्‍पत्ति का विक्रय परिदान द्वारा अथवा रजिस्‍टर्ड लिखत द्वारा किया जा सकता है। अचल सम्‍पत्ति का परिदान तब हो जाता है, जब विक्रेता क्रेता को या क्रेता द्वारा बताये गये व्‍यक्ति को सम्‍पत्ति का कब्‍जा करा देता है।
विक्रय संविदा - अचल से संबंधित किया गया करार जिससे सम्‍पत्ति से संबंधित संविदा की गई हो, विक्रय संविदा कही जाती है।
विक्रय संविदा हेतु आवश्‍यक तत्‍व - अचल सम्‍पत्ति को क्रय विक्रय करने हेतु निम्‍नांकित आवश्‍यक तत्‍व माने गये हैं-
(१) विक्रेता एवं क्रेता का होना - सम्पत्ति अंतरण के लिए स्वामी के रूप में विक्रेता एवं खरीदने वाले के रूप में क्रेता होना आवश्यक है।
(२) सम्पत्ति का होना - वैध सम्पत्ति अंतरण के लिए सम्पत्ति का भौतिक रूप में होना आवश्यक है।
(३) अंतरण - किसी भी सम्पत्ति का विक्रय बिना भुगतान के नहीं होता है, क्रेता सम्पत्ति का मूल्य अदा कर विके्ता से सम्पत्ति का अंतरण ग्रहण करे। दान, हिबा और अन्य माध्यमों से जहां सम्पत्ति बिना मूल्य के अंतरित की जाती है, उसके अलग से कानून हैं।
(४) मूल्य - सम्पत्ति का मूल्य होना चाहिए, जिसके भुगतान के उपरांत सम्पत्ति का हस्तांतरण किया जा सके।
क्रेता (खरीदने वाला) को विक्रेता की पूरी जानकारी होना आवश्यक है। उसका नाम, पता और और वास्तव में वह विक्रीत सम्पत्ति का स्वामी है, या नहीं इसकी जानकारी बेहद आवश्यक है, और इसके लिए क्रेता को चाहिए कि, वह विक्रेता से सम्‍पत्ति से संबंधित स्‍वामित्‍व प्रमाणपत्र, नामांतरण, खसरा, बीवन, आदि की मांग करे, इसके अतिरिक्त उस सम्पत्ति का ३० वर्षों का शासकीय रिकार्ड भी चेक करवा लेना चाहिए। मूल दस्तावेज इत्यादि से यह पता चल जायेगा कि, वर्तमान सम्पत्ति धारण करने वाला किस प्रकार भूमि का स्वामी बना है। किसी व्‍यक्ति के पास मात्र उसके नाम से रजिस्‍टर्ड विक्रयपत्र होने से उसे सम्‍पत्ति का मालिक नहीं कहा जा सकता।
क्रेता को विक्रेता के अधिकारों का भी ज्ञान होना चाहिए कि, उस सम्पत्ति के बारे में उसके क्या अधिकार हैं, वह इस सम्पत्ति का पूर्ण स्वामी है या इसमें कोई साझेदार भी है।


  • क्रेता को सम्पत्ति के बारे में भी ज्ञान होना चाहिए कि, क्या यह भूमि स्वतंत्र है। यह भूमि ऐसी भूमि होना चाहिए, जिसके विक्रय पर कोई बंधन नहीं हो। कानून के अनुसार कुछ भूमि ऐसी होती है, जिसका स्वामी उनका प्रयोग तो कर सकता है, लेकिन विक्रय नहीं कर सकता है। देवोत्तर भूमि, सेवा भूमि, दान भूमि, वक्फ भूमि या मुस्लिम महिला के मेहर की भूमि इत्यादि को बेचा नहीं जा सकता है। इनका अंतरण अतिरिक्त कानूनों द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त शासकीय भूमि या कोई ऐसी भूमि जिस पर पट्टा दिया गया है, तो ऐसी भूमि विक्रय नहीं की जा सकती है।
  • म०प्र० में आदिवासियों की भूमि को खरीदा नहीं जा सकता है। विशेष परिस्थितियों में जिला कलेक्टर की अनुमति लेकर ही इनका विक्रय हो सकता है।

इन बातों से अवगत होने के बाद ही वास्तव में भूमि का स्वामी और भूमि के अधिकार स्पष्ट हों तो क्रेता को सम्पत्ति खरीदने के बारे में सोचना चाहिए। सम्पत्ति अंतरण के समय स्‍वामित्‍व प्रमाणपत्र, नामांतरण, खसरा, बीवन इत्‍यादि दस्तावेज प्राप्त करने के उपरांत क्रय विक्रय की प्रक्रिया के तहत रजिस्ट्री करवा लेना चाहिए और आवश्यक स्टाम्प शुल्क अदा कर स्वामित्व व कब्‍जा प्राप्त कर लेना चाहिए।

कहीं-कहीं होता है कि, विक्रेता के पास मूल दस्तावेज नहीं होते हैं, ऐसे में विक्रेता से इस बाबत शपथपत्र प्राप्त कर लेना चाहिए और स्थानीय समाचारपत्रों में इस बाबत सूचना प्रकाशित करा लेनी चाहिए कि इस सम्पत्ति पर किसी का कोई अधिकार तो नहीं है, या यह भूमि कहीं बंधक तो नहीं है। सूचना प्रकाशन के बाद कोई आपत्ति नहीं आती है, तो सम्पत्ति का मूल्य अदा कर विक्रेता से अपने पक्ष में स्वामित्व करवा लेना चाहिए।
इसके उपरांत इस भूमि का रिकार्ड शासकीय खाते में अपने नाम दर्ज करवा लेना चाहिए। सम्पत्ति का खसरा और अक्स आपके नाम पर होने के बाद आप उस सम्पत्ति के स्वामी बन सकते हैं। अब क्रेता का दायित्व है कि, वह उस सम्पत्ति का कब्जा ले और उसको बचाने के लिए अपनी ओर से सुरक्षा का प्रबंध करे। सम्पत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत क्रेता के दायित्व केवल विक्रय धनराशि का भुगतान कर उसका अंतरण करवाना उसका अधिकार है। विक्रेता का दायित्व है कि, वह क्रेता को इन बातों को बताये-
(१) विक्रेता का दायित्व है कि, वह भूमि स्वामी होने के नाते वे दस्तावेज प्रस्तुत करे, जिसके आधार पर सम्पत्ति का स्वामी बना है, यह दस्तावेज विक्रय के समय क्रेता को उपलब्ध कराये।
(२) विक्रेता का दायित्व है कि, क्रेता से सम्पत्ति का मूल्य प्राप्त करने के बाद उसके पक्ष में  हक विलेख यानी सम्पत्ति उसके नाम करने की प्रक्रिया में सहयोग दे। स्वामित्व हंस्तातरण में जहां उसकी आवश्यकता हो उसका पालन करे।
(३) सम्पत्ति विक्रय करने की दिनांक तक जो भी बंधक या अन्य भुगतान क्रेता को करके अथवा सम्पत्ति को समस्त दायित्वों से मुक्त करके क्रेता को प्रदान करे। अगर ऐसा न हो सके तो क्रेता को उस संबंध में अवगत कराये, और दायित्वों के भुगतान का मामला स्पष्ट करे।
सम्पत्ति का अंतरण, सम्पत्ति अंतरण अधिनियम 1882 के अनुसार होना आवश्यक है। सम्‍पत्ति क्रय करने में सावधानी का पहलू ही क्रेता को धोखाधड़ी और फर्जीबाड़े से बचा सकता है। इसलिए सम्पत्ति प्राप्त करने के लिए क्रय विक्रय की कानूनी जानकारी आवश्यक है।

शैलेश जैन, एडव्‍होकेट
पटेल मार्ग, शुजालपुर मण्‍डी, जिला शाजापुर (म.प्र.)
मोबाईल नम्‍बर 09479836178