दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 201 | Section 201 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 201 in
Hindi ] –
ऐसे मजिस्ट्रेट
द्वारा प्रक्रिया जो मामले का संज्ञान करने के लिए सक्षम नहीं है-
यदि परिवाद ऐसे मजिस्ट्रेट को किया जाता है जो उस अपराध का
संज्ञान करने के लिए सक्षम नहीं है, तो
(क) यदि परिवाद लिखित है तो वह उसको समुचित न्यायालय में पेश करने
के लिए, उस भाव के पृष्ठांकन सहित, लौटा देगा:
(ख) यदि परिवाद लिखित नहीं है तो वह परिवादी को उचित न्यायालय में
जाने का निदेश देगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 | Section 202 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 202 in
Hindi ] –
आदेशिका के जारी
किए जाने को मुल्तवी करना—
(1) यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिए वह्
प्राधिकृत है या जो धारा 192 के
अधीन उसके हवाले किया गया है. ठीक समझता है तो [और ऐसे मामले में जहां अभियुक्त
ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है जो उस क्षेत्र से परे है जिसमें वह अपनी
अधिकारिता का प्रयोग करता है। अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना
मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिए
पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो
स्वयं ही मामले की जांच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे
व्यक्ति द्वारा,
जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किए
जाने के लिए निदेश दे सकता है : परंतु अन्वेषण के लिए ऐसा कोई निदेश वहां नहीं
दिया जाएगा
(क) जहाँ मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद
किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है; अन्यथा
(ख) जहां परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि
परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हो) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली
जाती है।
(2) उपधारा (1) के
अधीन किसी जांच में यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य
ले सकता है :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध
जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो यह परिवादी
से अपने सब साक्षियों को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा।
(3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस
अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिए उसे वारंट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति
के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियां
होंगी।
(1) यदि कोई मजिस्ट्रेट ऐसे अपराध का परिवाद प्राप्त करने पर, जिसका संज्ञान करने के लिए वह्
प्राधिकृत है या जो धारा 192 के
अधीन उसके हवाले किया गया है. ठीक समझता है तो [और ऐसे मामले में जहां अभियुक्त
ऐसे किसी स्थान में निवास कर रहा है जो उस क्षेत्र से परे है जिसमें वह अपनी
अधिकारिता का प्रयोग करता है। अभियुक्त के विरुद्ध आदेशिका का जारी किया जाना
मुल्तवी कर सकता है और यह विनिश्चित करने के प्रयोजन से कि कार्यवाही करने के लिए
पर्याप्त आधार है अथवा नहीं, या तो
स्वयं ही मामले की जांच कर सकता है या किसी पुलिस अधिकारी द्वारा या अन्य ऐसे
व्यक्ति द्वारा,
जिसको वह ठीक समझे अन्वेषण किए
जाने के लिए निदेश दे सकता है : परंतु अन्वेषण के लिए ऐसा कोई निदेश वहां नहीं
दिया जाएगा
(क) जहाँ मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध जिसका परिवाद
किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है; अन्यथा
(ख) जहां परिवाद किसी न्यायालय द्वारा नहीं किया गया है जब तक कि
परिवादी की या उपस्थित साक्षियों की (यदि कोई हो) धारा 200 के अधीन शपथ पर परीक्षा नहीं कर ली
जाती है।
(2) उपधारा (1) के
अधीन किसी जांच में यदि मजिस्ट्रेट ठीक समझता है तो साक्षियों का शपथ पर साक्ष्य
ले सकता है :
परंतु यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि वह अपराध
जिसका परिवाद किया गया है अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो यह परिवादी
से अपने सब साक्षियों को पेश करने की अपेक्षा करेगा और उनकी शपथ पर परीक्षा करेगा।
(3) यदि उपधारा (1) के अधीन अन्वेषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो पुलिस
अधिकारी नहीं है तो उस अन्वेषण के लिए उसे वारंट के बिना गिरफ्तार करने की शक्ति
के सिवाय पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को इस संहिता द्वारा प्रदत्त सभी शक्तियां
होंगी।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 203 | Section 203 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 203 in
Hindi ] –
परिवाद का खारिज
किया जाना—
यदि परिवादी के और साक्षियों के शपथ पर किए गए कथन पर (यदि
कोई हो), और धारा 202 के अधीन जांच या अन्वेषण के (यदि कोई
हो) परिणाम पर विचार करने के पश्चात्, मजिस्ट्रेट की यह राय है कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार
नहीं है तो वह परिवाद को खारिज कर देगा और ऐसे प्रत्येक मामले में वह ऐसा करने के
अपने कारणों को संक्षेप में अभिलिखित करेगा।
यदि परिवादी के और साक्षियों के शपथ पर किए गए कथन पर (यदि
कोई हो), और धारा 202 के अधीन जांच या अन्वेषण के (यदि कोई
हो) परिणाम पर विचार करने के पश्चात्, मजिस्ट्रेट की यह राय है कि कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार
नहीं है तो वह परिवाद को खारिज कर देगा और ऐसे प्रत्येक मामले में वह ऐसा करने के
अपने कारणों को संक्षेप में अभिलिखित करेगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 204 | Section 204 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 204 in
Hindi ] –
आदेशिका का जारी
किया जाना—
(1) यदि किसी अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय में
कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार हैं और
(क) मामला समन-मामला प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त की हाजिरी के
लिए समन जारी करेगा; अथवा
(ख) मामला वारंट-मामला प्रतीत होता है तो वह अपने या (यदि उसकी अपनी
अधिकारिता नहीं है तो) अधिकारिता वाले किसी अन्य मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के
निश्चित समय पर लाए जाने या हाजिर होने के लिए वारंट, या यदि ठीक समझता है समन, जारी कर सकता है।
(2) अभियुक्त के विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन तब तक कोई समन या वारंट जारी
नहीं किया जाएगा जब तक अभियोजन के साक्षियों की सूची फाइल नहीं कर दी जाती है।
(3) लिखित परिवाद पर संस्थित कार्यवाही में उपधारा (1) के अधीन जारी किए गए प्रत्येक समन
वारंट के साथ उस परिवाद की एक प्रतिलिपि होगी।
(4) जब तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन कोई आदेशिका फीस या
अन्य फीस संदेय है तब कोई आदेशिका तब तक जारी नहीं की जाएगी जब तक फीस नहीं दे दी
जाती है और यदि ऐसी फीस उचित समय के अंदर नहीं दी जाती है तो मजिस्ट्रेट परिवाद को
खारिज कर सकता है।
(5) इस धारा की कोई बात धारा 87 के उपबंधों पर प्रभाव डालने वाली नहीं
समझी जाएगी
(1) यदि किसी अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय में
कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार हैं और
(क) मामला समन-मामला प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त की हाजिरी के
लिए समन जारी करेगा; अथवा
(ख) मामला वारंट-मामला प्रतीत होता है तो वह अपने या (यदि उसकी अपनी
अधिकारिता नहीं है तो) अधिकारिता वाले किसी अन्य मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के
निश्चित समय पर लाए जाने या हाजिर होने के लिए वारंट, या यदि ठीक समझता है समन, जारी कर सकता है।
(2) अभियुक्त के विरुद्ध उपधारा (1) के अधीन तब तक कोई समन या वारंट जारी
नहीं किया जाएगा जब तक अभियोजन के साक्षियों की सूची फाइल नहीं कर दी जाती है।
(3) लिखित परिवाद पर संस्थित कार्यवाही में उपधारा (1) के अधीन जारी किए गए प्रत्येक समन
वारंट के साथ उस परिवाद की एक प्रतिलिपि होगी।
(4) जब तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन कोई आदेशिका फीस या
अन्य फीस संदेय है तब कोई आदेशिका तब तक जारी नहीं की जाएगी जब तक फीस नहीं दे दी
जाती है और यदि ऐसी फीस उचित समय के अंदर नहीं दी जाती है तो मजिस्ट्रेट परिवाद को
खारिज कर सकता है।
(5) इस धारा की कोई बात धारा 87 के उपबंधों पर प्रभाव डालने वाली नहीं
समझी जाएगी
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 205 | Section 205 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 205 in
Hindi ] –
मजिस्ट्रेट का
अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकना-
(1) जब कभी कोई मजिस्ट्रेट समन जारी करता है तब यदि उसे ऐसा करने
का कारण प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्त कर सकता है
और अपने प्लीडर द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है।
(2) किंतु मामले की जांच या विचारण करने वाला मजिस्ट्रेट, स्वविवेकानुसार, कार्यवाही के किसी प्रक्रम में
अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी का निदेश दे सकता है और यदि आवश्यक हो तो उसे इस
प्रकार हाजिर होने के लिए इसमें इसके पूर्व उपबंधित रीति से विवश कर सकता है।
(1) जब कभी कोई मजिस्ट्रेट समन जारी करता है तब यदि उसे ऐसा करने
का कारण प्रतीत होता है तो वह अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्त कर सकता है
और अपने प्लीडर द्वारा हाजिर होने की अनुज्ञा दे सकता है।
(2) किंतु मामले की जांच या विचारण करने वाला मजिस्ट्रेट, स्वविवेकानुसार, कार्यवाही के किसी प्रक्रम में
अभियुक्त की वैयक्तिक हाजिरी का निदेश दे सकता है और यदि आवश्यक हो तो उसे इस
प्रकार हाजिर होने के लिए इसमें इसके पूर्व उपबंधित रीति से विवश कर सकता है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 206 | Section 206 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 206 in
Hindi ] –
छोटे अपराधों के
मामले में विशेष समन–
(1) यदि किसी छोटे अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय
में मामले को [धारा 260 या
धारा 261 के अधीन] संक्षेपतः निपटाया जा सकता
है तो वह मजिस्ट्रेट उस दशा के सिवाय जहां उन कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे
उसकी प्रतिकूल राय है, अभियुक्त
से यह अपेक्षा करते हुए उसके लिए समन जारी करेगा कि वह विनिर्दिष्ट तारीख को
मजिस्ट्रेट के समक्ष या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा हाजिर हो या वह मजिस्ट्रेट के
समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो लिखित रूप में
उक्त अभिवाक् और समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम डाक या संदेशवाहक द्वारा
विनिर्दिष्ट तारीख के पूर्व भेज दे या यदि वह प्लीडर द्वारा हाजिर होना चाहता है
और ऐसे प्लीडर द्वारा उस आरोप के दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो प्लीडर को
अपनी ओर से आरोप के दोषी होने का अभिवचन करने के लिए लिखकर प्राधिकृत करे और ऐसे
प्लीडर की मार्फत जुर्माने का संदाय करे :
परंतु ऐसे समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम [एक हजार
रुपए] से अधिक न होगी।
(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिए “छोटे अपराध से कोई ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो केवल एक हजार
रुपए से अनधिक जुर्माने से दंडनीय है किंतु इसके अंतर्गत कोई ऐसा अपराध नहीं है जो
मोटरयान अधिनियम, 1939 (1939 का 4) के अधीन
या किसी अन्य ऐसी विधि के अधीन, जिसमें
दोषी होने के अभिवाक पर अभियुक्त की अनुपस्थिति में उसको दोषसिद्ध करने के लिए
उपबंध है, इस प्रकार दंडनीय है।
[(3) राज्य सरकार, किसी
मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) द्वारा
प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किसी ऐसे अपराध के संबंध में करने के लिए, जो धारा 320 के अधीन शमनीय है, या जो कारावास से, जिसकी अवधि तीन मास से अधिक नहीं है
या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय है अधिसूचना द्वारा विशेष रूप से वहां सशक्त कर
सकती है, जहां मामले के तथ्यों और परिस्थितियों
का ध्यान रखते हुए मजिस्ट्रेट की राय है कि केवल जुर्माना अधिरोपित करने से न्याय
के उद्देश्य पूरे हो जाएंगे।
(1) यदि किसी छोटे अपराध का संज्ञान करने वाले मजिस्ट्रेट की राय
में मामले को [धारा 260 या
धारा 261 के अधीन] संक्षेपतः निपटाया जा सकता
है तो वह मजिस्ट्रेट उस दशा के सिवाय जहां उन कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे
उसकी प्रतिकूल राय है, अभियुक्त
से यह अपेक्षा करते हुए उसके लिए समन जारी करेगा कि वह विनिर्दिष्ट तारीख को
मजिस्ट्रेट के समक्ष या तो स्वयं या प्लीडर द्वारा हाजिर हो या वह मजिस्ट्रेट के
समक्ष हाजिर हुए बिना आरोप का दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो लिखित रूप में
उक्त अभिवाक् और समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम डाक या संदेशवाहक द्वारा
विनिर्दिष्ट तारीख के पूर्व भेज दे या यदि वह प्लीडर द्वारा हाजिर होना चाहता है
और ऐसे प्लीडर द्वारा उस आरोप के दोषी होने का अभिवचन करना चाहता है तो प्लीडर को
अपनी ओर से आरोप के दोषी होने का अभिवचन करने के लिए लिखकर प्राधिकृत करे और ऐसे
प्लीडर की मार्फत जुर्माने का संदाय करे :
परंतु ऐसे समन में विनिर्दिष्ट जुर्माने की रकम [एक हजार
रुपए] से अधिक न होगी।
(2) इस धारा के प्रयोजनों के लिए “छोटे अपराध से कोई ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो केवल एक हजार
रुपए से अनधिक जुर्माने से दंडनीय है किंतु इसके अंतर्गत कोई ऐसा अपराध नहीं है जो
मोटरयान अधिनियम, 1939 (1939 का 4) के अधीन
या किसी अन्य ऐसी विधि के अधीन, जिसमें
दोषी होने के अभिवाक पर अभियुक्त की अनुपस्थिति में उसको दोषसिद्ध करने के लिए
उपबंध है, इस प्रकार दंडनीय है।
[(3) राज्य सरकार, किसी
मजिस्ट्रेट को उपधारा (1) द्वारा
प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग किसी ऐसे अपराध के संबंध में करने के लिए, जो धारा 320 के अधीन शमनीय है, या जो कारावास से, जिसकी अवधि तीन मास से अधिक नहीं है
या जुर्माने से या दोनों से दंडनीय है अधिसूचना द्वारा विशेष रूप से वहां सशक्त कर
सकती है, जहां मामले के तथ्यों और परिस्थितियों
का ध्यान रखते हुए मजिस्ट्रेट की राय है कि केवल जुर्माना अधिरोपित करने से न्याय
के उद्देश्य पूरे हो जाएंगे।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 207 | Section 207 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 207 in Hindi
] –
अभियुक्त को पुलिस
रिपोर्ट या अन्य दस्तावेजों की प्रतिलिपि देना—
किसी ऐसे मामले में जहाँ कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के आधार पर
संस्थित की गई है, मजिस्ट्रेट
निम्नलिखित में से प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब नि:शुल्क देगा:
(i) पुलिस रिपोर्ट:
(ii) धारा 154 के
अधीन लेखबद्ध की गई प्रथम इत्तिला रिपोर्ट ;
(iii) धारा 161 की
उपधारा (3)
के अधीन अभिलिखित उन सभी
व्यक्तियों के कथन, जिनकी
अपने साक्षियों के रूप में परीक्षा करने का अभियोजन का विचार है, उनमें से किसी ऐसे भाग को छोड़कर
जिनको ऐसे छोड़ने के लिए निवेदन धारा 173 की उपधारा (6) के
अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है;
(iv) धारा 164 के
अधीन लेखबद्ध की गई संस्वीकृतियां या कथन, यदि कोई हों;
(v) कोई अन्य दस्तावेज या उसका सुसंगत उद्धरण, जो धारा 173 की उपधारा (5) के अधीन पुलिस रिपोर्ट के साथ
मजिस्ट्रेट को भेजी गई है:
परंतु मजिस्ट्रेट खण्ड (i) में निर्दिष्ट कथन के किसी ऐसे भाग का परिशीलन करने और ऐसे निवेदन
के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा दिए गए कारणों पर विचार करने के पश्चात् यह निदेश दे
सकता है कि कथन के उस भाग की या उसके ऐसे प्रभाग की, जैसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे, एक प्रतिलिपि अभियुक्त को दी जाए :
परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि खंड
(v) में निर्दिष्ट कोई दस्तावेज विशालकाय
है तो वह अभियुक्त को उसकी प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या
प्लीडर द्वारा न्यायालय में उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा।
किसी ऐसे मामले में जहाँ कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के आधार पर
संस्थित की गई है, मजिस्ट्रेट
निम्नलिखित में से प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब नि:शुल्क देगा:
(i) पुलिस रिपोर्ट:
(ii) धारा 154 के
अधीन लेखबद्ध की गई प्रथम इत्तिला रिपोर्ट ;
(iii) धारा 161 की
उपधारा (3)
के अधीन अभिलिखित उन सभी
व्यक्तियों के कथन, जिनकी
अपने साक्षियों के रूप में परीक्षा करने का अभियोजन का विचार है, उनमें से किसी ऐसे भाग को छोड़कर
जिनको ऐसे छोड़ने के लिए निवेदन धारा 173 की उपधारा (6) के
अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है;
(iv) धारा 164 के
अधीन लेखबद्ध की गई संस्वीकृतियां या कथन, यदि कोई हों;
(v) कोई अन्य दस्तावेज या उसका सुसंगत उद्धरण, जो धारा 173 की उपधारा (5) के अधीन पुलिस रिपोर्ट के साथ
मजिस्ट्रेट को भेजी गई है:
परंतु मजिस्ट्रेट खण्ड (i) में निर्दिष्ट कथन के किसी ऐसे भाग का परिशीलन करने और ऐसे निवेदन
के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा दिए गए कारणों पर विचार करने के पश्चात् यह निदेश दे
सकता है कि कथन के उस भाग की या उसके ऐसे प्रभाग की, जैसा मजिस्ट्रेट ठीक समझे, एक प्रतिलिपि अभियुक्त को दी जाए :
परंतु यह और कि यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि खंड
(v) में निर्दिष्ट कोई दस्तावेज विशालकाय
है तो वह अभियुक्त को उसकी प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या
प्लीडर द्वारा न्यायालय में उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 208 | Section 208 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 208 in
Hindi ] –
सेशन न्यायालय
द्वारा विचारणीय अन्य मामलों में अभियुक्त को कथनों और दस्तावेजों की प्रतिलिपियां
देना-
जहां पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में, धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी करने वाले
मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय
है, वहां मजिस्ट्रेट निम्नलिखित में से
प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब निःशुल्क देगा:
(i) उन सभी व्यक्तियों के, जिनकी मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षा की जा चुकी है, धारा 200 या धारा 202 के अधीन लेखबद्ध किए
गए कथन;
(ii) धारा 161 या
धारा 164 के अधीन लेखबद्ध किए गए कथन, और संस्वीकृतियां, यदि कोई हों;
(iii) मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश की गई कोई दस्तावेजें, जिन पर निर्भर रहने का अभियोजन का
विचार है : परंतु यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि ऐसी कोई दस्तावेज
विशालकाय है,
तो वह अभियुक्त को उसकी
प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या प्लीडर द्वारा न्यायालय में
उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा।
जहां पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में, धारा 204 के अधीन आदेशिका जारी करने वाले
मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय
है, वहां मजिस्ट्रेट निम्नलिखित में से
प्रत्येक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को अविलंब निःशुल्क देगा:
(i) उन सभी व्यक्तियों के, जिनकी मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षा की जा चुकी है, धारा 200 या धारा 202 के अधीन लेखबद्ध किए
गए कथन;
(ii) धारा 161 या
धारा 164 के अधीन लेखबद्ध किए गए कथन, और संस्वीकृतियां, यदि कोई हों;
(iii) मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश की गई कोई दस्तावेजें, जिन पर निर्भर रहने का अभियोजन का
विचार है : परंतु यदि मजिस्ट्रेट का समाधान हो जाता है कि ऐसी कोई दस्तावेज
विशालकाय है,
तो वह अभियुक्त को उसकी
प्रतिलिपि देने के बजाय यह निदेश देगा कि उसे स्वयं या प्लीडर द्वारा न्यायालय में
उसका निरीक्षण ही करने दिया जाएगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 209 | Section 209 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 209 in
Hindi ] –
जब अपराध अनन्यत:
सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तब मामला उसे सुपुर्द करना-
जब पुलिस रिपोर्ट पर या अन्यथा संस्थित किसी मामले में
अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है और मजिस्ट्रेट को यह
प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह
(क) यथास्थिति, धारा
207 या धारा 208 के उपबंधों का अनुपालन करने के
पश्चात् मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द करेगा और जमानत से संबंधित इस संहिता के
उपबंधों के अधीन रहते हुए अभियुक्त व्यक्ति को अभिरक्षा में तब तक के लिए
प्रतिप्रेषित करेगा जब तक ऐसी सुपुर्दगी नहीं कर दी जाती है :]
(ख) जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण
के दौरान और समाप्त होने तक अभियुक्त की अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित करेगा;
(ग) मामले का अभिलेख तथा दस्तावेजें और वस्तुं, यदि कोई हों, जिन्हें साक्ष्य में पेश किया जाना है, उस न्यायालय को भेजेगा;
(घ) मामले के सेशन न्यायालय को सुपुर्द किए जाने की लोक अभियोजक को
सूचना देगा।
जब पुलिस रिपोर्ट पर या अन्यथा संस्थित किसी मामले में
अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होता है या लाया जाता है और मजिस्ट्रेट को यह
प्रतीत होता है कि अपराध अनन्यतः सेशन न्यायालय द्वारा विचारणीय है तो वह
(क) यथास्थिति, धारा
207 या धारा 208 के उपबंधों का अनुपालन करने के
पश्चात् मामला सेशन न्यायालय को सुपुर्द करेगा और जमानत से संबंधित इस संहिता के
उपबंधों के अधीन रहते हुए अभियुक्त व्यक्ति को अभिरक्षा में तब तक के लिए
प्रतिप्रेषित करेगा जब तक ऐसी सुपुर्दगी नहीं कर दी जाती है :]
(ख) जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण
के दौरान और समाप्त होने तक अभियुक्त की अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित करेगा;
(ग) मामले का अभिलेख तथा दस्तावेजें और वस्तुं, यदि कोई हों, जिन्हें साक्ष्य में पेश किया जाना है, उस न्यायालय को भेजेगा;
(घ) मामले के सेशन न्यायालय को सुपुर्द किए जाने की लोक अभियोजक को
सूचना देगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 210 | Section 210 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 210 in
Hindi ] –
परिवाद वाले मामले
में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया और उसी अपराध के बारे में पुलिस अन्वेषण–
(1) जब पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में
(जिसे इसमें इसके पश्चात् परिवाद वाला मामला कहा गया है। मजिस्ट्रेट द्वारा की
जाने वाली जांच या विचारण के दौरान उसके समक्ष यह प्रकट किया जाता है कि उस अपराध
के बारे में जो उसके द्वारा की जाने वाली जांच या विचारण का विषय है पुलिस द्वारा
अन्वेषण हो रहा है, तब
मजिस्ट्रेट ऐसी जांच या विचारण की कार्यवाहियों को रोक देगा और अन्वेषण करने वाले
पुलिस अधिकारी से उस मामले की रिपोर्ट मांगेगा।
(2) यदि अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 के अधीन रिपोर्ट की जाती है और ऐसी
रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध किसी अपराध का संज्ञान किया
जाता है जो परिवाद वाले मामले में अभियुक्त है तो, मजिस्ट्रेट परिवाद वाले मामले की और पुलिस रिपोर्ट से पैदा
होने वाले मामले की जांच या विचारण साथ-साथ ऐसे करेगा मानो दोनों मामले पुलिस
रिपोर्ट पर संस्थित किए गए हैं।
(3) यदि पुलिस रिपोर्ट परिवाद वाले मामले में किसी अभियुक्त से
संबंधित नहीं है या यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट पर किसी अपराध का संज्ञान नहीं
करता है तो वह उस जांच या विचारण में जो उसके द्वारा रोक ली गई थी, इस संहिता के उपबंधों के अनुसार
कार्यवाही करेगा।
(1) जब पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित किसी मामले में
(जिसे इसमें इसके पश्चात् परिवाद वाला मामला कहा गया है। मजिस्ट्रेट द्वारा की
जाने वाली जांच या विचारण के दौरान उसके समक्ष यह प्रकट किया जाता है कि उस अपराध
के बारे में जो उसके द्वारा की जाने वाली जांच या विचारण का विषय है पुलिस द्वारा
अन्वेषण हो रहा है, तब
मजिस्ट्रेट ऐसी जांच या विचारण की कार्यवाहियों को रोक देगा और अन्वेषण करने वाले
पुलिस अधिकारी से उस मामले की रिपोर्ट मांगेगा।
(2) यदि अन्वेषण करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 173 के अधीन रिपोर्ट की जाती है और ऐसी
रिपोर्ट पर मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध किसी अपराध का संज्ञान किया
जाता है जो परिवाद वाले मामले में अभियुक्त है तो, मजिस्ट्रेट परिवाद वाले मामले की और पुलिस रिपोर्ट से पैदा
होने वाले मामले की जांच या विचारण साथ-साथ ऐसे करेगा मानो दोनों मामले पुलिस
रिपोर्ट पर संस्थित किए गए हैं।
(3) यदि पुलिस रिपोर्ट परिवाद वाले मामले में किसी अभियुक्त से
संबंधित नहीं है या यदि मजिस्ट्रेट पुलिस रिपोर्ट पर किसी अपराध का संज्ञान नहीं
करता है तो वह उस जांच या विचारण में जो उसके द्वारा रोक ली गई थी, इस संहिता के उपबंधों के अनुसार
कार्यवाही करेगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 211 | Section 211 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 211 in
Hindi ] –
आरोप की
अंतर्वस्तु–
(1) इस संहिता के अधीन प्रत्येक आरोप में उस अपराध का कथन होगा
जिसका अभियुक्त पर आरोप है।
(2) यदि उस अपराध का सुजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई
विनिर्दिष्ट नाम दिया गया है तो आरोप में उसी नाम से उस अपराध का वर्णन किया
जाएगा।
(3) यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई
विनिर्दिष्ट नाम नहीं दिया गया है तो अपराध की इतनी परिभाषा देनी होगी जितनी से
अभियुक्त को उस बात की सूचना हो जाए जिसका उस पर आरोप है।
(4) वह विधि और विधि की वह धारा, जिसके विरुद्ध अपराध किया जाना कथित है, आरोप में उल्लिखित होगी।
(5) यह तथ्य कि आरोप लगा दिया गया है इस कथन के समतुल्य है कि
विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त जिससे आरोपित अपराध बनता है उस विशिष्ट मामले
में पूरी हो गई हैं।
(6) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा।
(7) यदि अभियुक्त किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किए जाने पर
किसी पश्चात्वर्ती अपराध के लिए ऐसी पूर्व दोषसिद्धि के कारण वर्धित दंड का या
भिन्न प्रकार के दंड का भागी है और यह आशयित है कि ऐसी पूर्व दोषसिद्धि उस दंड को
प्रभावित करने के प्रयोजन के लिए साबित की जाए जिसे न्यायालय पश्चात्वर्ती अपराध
के लिए देना ठीक समझे तो पूर्व दोषसिद्धि का तथ्य, तारीख और स्थान आरोप में कथित होंगे; और यदि ऐसा कथन रह गया है तो न्यायालय
दंडादेश देने के पूर्व किसी समय भी उसे जोड़ सकेगा।
(1) इस संहिता के अधीन प्रत्येक आरोप में उस अपराध का कथन होगा
जिसका अभियुक्त पर आरोप है।
(2) यदि उस अपराध का सुजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई
विनिर्दिष्ट नाम दिया गया है तो आरोप में उसी नाम से उस अपराध का वर्णन किया
जाएगा।
(3) यदि उस अपराध का सृजन करने वाली विधि द्वारा उसे कोई
विनिर्दिष्ट नाम नहीं दिया गया है तो अपराध की इतनी परिभाषा देनी होगी जितनी से
अभियुक्त को उस बात की सूचना हो जाए जिसका उस पर आरोप है।
(4) वह विधि और विधि की वह धारा, जिसके विरुद्ध अपराध किया जाना कथित है, आरोप में उल्लिखित होगी।
(5) यह तथ्य कि आरोप लगा दिया गया है इस कथन के समतुल्य है कि
विधि द्वारा अपेक्षित प्रत्येक शर्त जिससे आरोपित अपराध बनता है उस विशिष्ट मामले
में पूरी हो गई हैं।
(6) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा।
(7) यदि अभियुक्त किसी अपराध के लिए पहले दोषसिद्ध किए जाने पर
किसी पश्चात्वर्ती अपराध के लिए ऐसी पूर्व दोषसिद्धि के कारण वर्धित दंड का या
भिन्न प्रकार के दंड का भागी है और यह आशयित है कि ऐसी पूर्व दोषसिद्धि उस दंड को
प्रभावित करने के प्रयोजन के लिए साबित की जाए जिसे न्यायालय पश्चात्वर्ती अपराध
के लिए देना ठीक समझे तो पूर्व दोषसिद्धि का तथ्य, तारीख और स्थान आरोप में कथित होंगे; और यदि ऐसा कथन रह गया है तो न्यायालय
दंडादेश देने के पूर्व किसी समय भी उसे जोड़ सकेगा।
दृष्टांत
(क) क पर ख की हत्या का आरोप है। यह बात इस कथन के समतुल्य है कि क
का कार्य भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 299 और 300 में दी गई हत्या की परिभाषा के अंदर
आता है और वह उसी संहिता के साधारण अपवादों में से किसी के अंदर नहीं आता और वह
धारा 300 के पांच अपवादों में से किसी के अंदर
भी नहीं आता,
या यदि वह अपवाद 1 के अंदर आता है तो उस अपवाद के तीन
परंतुकों में से कोई न कोई परंतुक उसे लागू होता है।
(ख) क पर असन के उपकरण द्वारा ख को स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने
के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का
45) की धारा 326 के अधीन आरोप है । यह इस कथन के
समतुल्य है कि उस मामले के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 335 द्वारा उपबंध नहीं किया गया है और
साधारण अपवाद उसको लागू नहीं होते हैं।
(ग) क पर हत्या, छल, चोरी, उद्दीपन, जारकर्म
या आपराधिक अभित्रास या मिथ्या संपत्ति चिह्न को उपयोग में लाने का अभियोग है ।
आरोप में उन अपराधों की भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में
दी गई परिभाषाओं के निर्देश के बिना यह कथन हो सकता है कि क ने हत्या या छल या
चोरी या उद्दीपन या जारकर्म या आपराधिक अभित्रास किया है या यह कि उसने मिथ्या
संपत्ति चिह्न का उपयोग किया है ; किंतु
प्रत्येक दशा में वे धाराएं, जिनके
अधीन अपराध दंडनीय है. आरोप में निर्दिष्ट करनी पड़ेंगी।
(घ) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 184 के अधीन यह आरोप है कि उसने लोक सेवक
के विधिपूर्ण प्राधिकार द्वारा विक्रय के लिए प्रस्थापित संपत्ति के विक्रय में
साशय बाधा डाली है। आरोप उन शब्दों में ही होना चाहिए।
(क) क पर ख की हत्या का आरोप है। यह बात इस कथन के समतुल्य है कि क
का कार्य भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 299 और 300 में दी गई हत्या की परिभाषा के अंदर
आता है और वह उसी संहिता के साधारण अपवादों में से किसी के अंदर नहीं आता और वह
धारा 300 के पांच अपवादों में से किसी के अंदर
भी नहीं आता,
या यदि वह अपवाद 1 के अंदर आता है तो उस अपवाद के तीन
परंतुकों में से कोई न कोई परंतुक उसे लागू होता है।
(ख) क पर असन के उपकरण द्वारा ख को स्वेच्छया घोर उपहति कारित करने
के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का
45) की धारा 326 के अधीन आरोप है । यह इस कथन के
समतुल्य है कि उस मामले के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 335 द्वारा उपबंध नहीं किया गया है और
साधारण अपवाद उसको लागू नहीं होते हैं।
(ग) क पर हत्या, छल, चोरी, उद्दीपन, जारकर्म
या आपराधिक अभित्रास या मिथ्या संपत्ति चिह्न को उपयोग में लाने का अभियोग है ।
आरोप में उन अपराधों की भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में
दी गई परिभाषाओं के निर्देश के बिना यह कथन हो सकता है कि क ने हत्या या छल या
चोरी या उद्दीपन या जारकर्म या आपराधिक अभित्रास किया है या यह कि उसने मिथ्या
संपत्ति चिह्न का उपयोग किया है ; किंतु
प्रत्येक दशा में वे धाराएं, जिनके
अधीन अपराध दंडनीय है. आरोप में निर्दिष्ट करनी पड़ेंगी।
(घ) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 184 के अधीन यह आरोप है कि उसने लोक सेवक
के विधिपूर्ण प्राधिकार द्वारा विक्रय के लिए प्रस्थापित संपत्ति के विक्रय में
साशय बाधा डाली है। आरोप उन शब्दों में ही होना चाहिए।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 212 | Section 212 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 212 in
Hindi ] –
समय, स्थान और व्यक्ति के बारे में
विशिष्टियां-
(1) अभिकथित अपराध के समय और स्थान के बारे में और जिस व्यक्ति
के (यदि कोई हो) विरुद्ध अथवा जिस वस्तु के (यदि कोई हो) विषय में वह अपराध किया
गया उस व्यक्ति या वस्तु के बारे में ऐसी विशिष्टियां, जैसी अभियुक्त को उस बात की, जिसका उस पर आरोप है, सूचना देने के लिए उचित रूप से
पर्याप्त हैं आरोप में अंतर्विष्ट होंगी।
(2) जब अभियुक्त पर आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से धन या अन्य
जंगम संपत्ति के दुर्विनियोग का आरोप है तब इतना ही पर्याप्त होगा कि विशिष्ट मदों
का जिनके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, या अपराध करने की ठीक-ठीक तारीखों का विनिर्देश किए बिना, यथास्थिति, उस सकल राशि का विनिर्देश या उस जंगम
संपत्ति का वर्णन कर दिया जाता है जिसके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, और उन तारीखों का, जिनके बीच में अपराध का किया जाना
अभिकथित है,
विनिर्देश कर दिया जाता है और
ऐसे विरचित आरोप धारा 219 के
अर्थ में एक ही अपराध का आरोप समझा जाएगा:
परंतु ऐसी तारीखों में से पहली और अंतिम के बीच का समय एक
वर्ष से अधिक का न होगा।
(1) अभिकथित अपराध के समय और स्थान के बारे में और जिस व्यक्ति
के (यदि कोई हो) विरुद्ध अथवा जिस वस्तु के (यदि कोई हो) विषय में वह अपराध किया
गया उस व्यक्ति या वस्तु के बारे में ऐसी विशिष्टियां, जैसी अभियुक्त को उस बात की, जिसका उस पर आरोप है, सूचना देने के लिए उचित रूप से
पर्याप्त हैं आरोप में अंतर्विष्ट होंगी।
(2) जब अभियुक्त पर आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से धन या अन्य
जंगम संपत्ति के दुर्विनियोग का आरोप है तब इतना ही पर्याप्त होगा कि विशिष्ट मदों
का जिनके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, या अपराध करने की ठीक-ठीक तारीखों का विनिर्देश किए बिना, यथास्थिति, उस सकल राशि का विनिर्देश या उस जंगम
संपत्ति का वर्णन कर दिया जाता है जिसके विषय में अपराध किया जाना अभिकथित है, और उन तारीखों का, जिनके बीच में अपराध का किया जाना
अभिकथित है,
विनिर्देश कर दिया जाता है और
ऐसे विरचित आरोप धारा 219 के
अर्थ में एक ही अपराध का आरोप समझा जाएगा:
परंतु ऐसी तारीखों में से पहली और अंतिम के बीच का समय एक
वर्ष से अधिक का न होगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 213 | Section 213 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 213 in
Hindi ] –
कब अपराध किए जाने
की रीति कथित की जानी चाहिए-
जब मामला इस प्रकार का है कि धारा 211 और 212 में वर्णित विशिष्टियां अभियुक्त को
उस बात की,
जिसका उस पर आरोप है, पर्याप्त सूचना नहीं देती तब उस रीति
की, जिसमें अभिकथित अपराध किया गया, ऐसी विशिष्टियां भी, जैसी उस प्रयोजन के लिए पर्याप्त हैं, आरोप में अंतर्विष्ट होंगी।
जब मामला इस प्रकार का है कि धारा 211 और 212 में वर्णित विशिष्टियां अभियुक्त को
उस बात की,
जिसका उस पर आरोप है, पर्याप्त सूचना नहीं देती तब उस रीति
की, जिसमें अभिकथित अपराध किया गया, ऐसी विशिष्टियां भी, जैसी उस प्रयोजन के लिए पर्याप्त हैं, आरोप में अंतर्विष्ट होंगी।
दृष्टांत
(क) क पर वस्तु-विशेष की विशेष समय और स्थान में चोरी करने का
अभियोग है। यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति उपवर्णित हो जिससे चोरी की गई।
(ख) क पर ख के साथ कथित समय पर और कथित स्थान में छल करने का अभियोग
है। आरोप में वह रीति, जिससे
कने ख के साथ छल किया, उपवर्णित
करनी होगी।
(ग) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में मिथ्या साक्ष्य देने का
अभियोग है। आरोप में क द्वारा किए गए साक्ष्य का वह भाग उपवर्णित करना होगा जिसका
मिथ्या होना अभिकथित है।
(घ ) क पर लोक सेवक ख को उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में कथित समय
पर और कथित स्थान में बाधित करने का अभियोग है। आरोप में वह रीति उपवर्णित करनी
होगी जिससे क ने ख को उसके कृत्यों के निर्वह्न में बाधित किया।
(ङ) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में ख की हत्या करने का अभियोग
है। यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति कथित हो जिससे क ने ख की हत्या की।
(च) क पर ख को दंड से बचाने के आशय से विधि के निदेश की अवज्ञा करने
का अभियोग है । आरोपित अवज्ञा और अतिलंचित विधि का उपवर्णन आरोप में करना होगा।
(क) क पर वस्तु-विशेष की विशेष समय और स्थान में चोरी करने का
अभियोग है। यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति उपवर्णित हो जिससे चोरी की गई।
(ख) क पर ख के साथ कथित समय पर और कथित स्थान में छल करने का अभियोग
है। आरोप में वह रीति, जिससे
कने ख के साथ छल किया, उपवर्णित
करनी होगी।
(ग) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में मिथ्या साक्ष्य देने का
अभियोग है। आरोप में क द्वारा किए गए साक्ष्य का वह भाग उपवर्णित करना होगा जिसका
मिथ्या होना अभिकथित है।
(घ ) क पर लोक सेवक ख को उसके लोक कृत्यों के निर्वहन में कथित समय
पर और कथित स्थान में बाधित करने का अभियोग है। आरोप में वह रीति उपवर्णित करनी
होगी जिससे क ने ख को उसके कृत्यों के निर्वह्न में बाधित किया।
(ङ) क पर कथित समय पर और कथित स्थान में ख की हत्या करने का अभियोग
है। यह आवश्यक नहीं है कि आरोप में वह रीति कथित हो जिससे क ने ख की हत्या की।
(च) क पर ख को दंड से बचाने के आशय से विधि के निदेश की अवज्ञा करने
का अभियोग है । आरोपित अवज्ञा और अतिलंचित विधि का उपवर्णन आरोप में करना होगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 214 | Section 214 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 214 in
Hindi ] –
आरोप के शब्दों का
वह अर्थ लिया जाएगा जो उनका उस विधि में है जिसके अधीन वह अपराध दंडनीय है-
प्रत्येक आरोप में अपराध का वर्णन करने में उपयोग में लाए गए
शब्दों को उस अर्थ में उपयोग में लाया गया समझा जाएगा जो अर्थ उन्हें इस विधि
द्वारा दिया गया है जिसके अधीन ऐसा अपराध दंडनीय है।
प्रत्येक आरोप में अपराध का वर्णन करने में उपयोग में लाए गए
शब्दों को उस अर्थ में उपयोग में लाया गया समझा जाएगा जो अर्थ उन्हें इस विधि
द्वारा दिया गया है जिसके अधीन ऐसा अपराध दंडनीय है।
धारा 214 CrPC
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 215 | Section 215 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 215 in
Hindi ] –
गलतियों का
प्रभाव-
अपराध के या उन विशिष्टियों के, जिनका आरोप में कथन होना अपेक्षित है, कथन करने में किसी गलती को और उस
अपराध या उन विशिष्टियों के कथन करने में किसी लोप को मामले के किसी प्रक्रम में
तब ही तात्त्विक माना जाएगा जब ऐसी गलती या लोप से अभियुक्त वास्तव में भुलावे में
पड़ गया है और उसके कारण न्याय नहीं हो पाया है अन्यथा नहीं।
अपराध के या उन विशिष्टियों के, जिनका आरोप में कथन होना अपेक्षित है, कथन करने में किसी गलती को और उस
अपराध या उन विशिष्टियों के कथन करने में किसी लोप को मामले के किसी प्रक्रम में
तब ही तात्त्विक माना जाएगा जब ऐसी गलती या लोप से अभियुक्त वास्तव में भुलावे में
पड़ गया है और उसके कारण न्याय नहीं हो पाया है अन्यथा नहीं।
दृष्टान्त
(क) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 242 के अधीन यह आरोप है कि “उसने कब्जे में ऐसा कूटकृत सिक्का रखा
है जिसे वह उस समय, जब वह
सिक्का उसके कब्जे में आया था, जानता
था कि वह कूटकृत है और आरोप में “कपटपूर्वक” शब्द छूट गया है। जब तक यह प्रतीत
नहीं होता है कि क वास्तव में इस लोप से भुलावे में पड़ गया, इस गलती को तात्त्विक नहीं समझा
जाएगा।
(ख) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख के साथ छल
किया है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है या अशुद्ध रूप में उपवर्णित है । क अपनी
प्रतिरक्षा करता है. साक्षियों को पेश करता है और संव्यवहार का स्वयं अपना विवरण
देता है। न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप
तात्त्विक नहीं है।
(ग) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख से छल किया
है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है। क और ख के बीच अनेक संव्यवहार हुए हैं और क के
पास यह जानने का कि आरोप का निर्देश उनमें से किसके प्रति है कोई साधन नहीं था और
उसने अपनी कोई प्रतिरक्षा नहीं की। न्यायालय ऐसे तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है
कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप उस मामले में तात्त्विक गलती थी।
(च) क पर 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की हत्या करने का आरोप
है। वास्तव में मृत व्यक्ति का नाम हैदरबख्श था और हत्या की तारीख 20 जनवरी, 1882 थी। क पर कभी भी एक हत्या के अतिरिक्त
दूसरी किसी हत्या का आरोप नहीं लगाया गया और उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष हुई जांच को
सुना था जिसमें हैदरबख्श के मामले का ही अनन्य रूप से निर्देश किया गया था।
न्यायालय इन तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है कि क उससे भुलावे में नहीं पड़ा था और
आरोप में यह गलती तात्त्विक नहीं थी।
(ङ) क पर 20 जनवरी, 1883 को हैदरबख्श की हत्या और 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की (जिसने उसे हत्या के
लिए गिरफ्तार करने का प्रयास किया था) ह्त्या करने का आरोप है । जब वह हैदरबख्श की
हत्या के लिए आरोपित हुआ, तब उसका
विचारण खुदाबखश की हत्या के लिए हुआ । उसकी प्रतिरक्षा में उपस्थित साक्षी
हैदरबख्श वाले मामले में साक्षी थे। न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि क भुलावे
में पड़ गया था और यह गलती तात्त्विक थी।
(क) क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 242 के अधीन यह आरोप है कि “उसने कब्जे में ऐसा कूटकृत सिक्का रखा
है जिसे वह उस समय, जब वह
सिक्का उसके कब्जे में आया था, जानता
था कि वह कूटकृत है और आरोप में “कपटपूर्वक” शब्द छूट गया है। जब तक यह प्रतीत
नहीं होता है कि क वास्तव में इस लोप से भुलावे में पड़ गया, इस गलती को तात्त्विक नहीं समझा
जाएगा।
(ख) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख के साथ छल
किया है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है या अशुद्ध रूप में उपवर्णित है । क अपनी
प्रतिरक्षा करता है. साक्षियों को पेश करता है और संव्यवहार का स्वयं अपना विवरण
देता है। न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप
तात्त्विक नहीं है।
(ग) क पर ख से छल करने का आरोप है और जिस रीति से उसने ख से छल किया
है वह आरोप में उपवर्णित नहीं है। क और ख के बीच अनेक संव्यवहार हुए हैं और क के
पास यह जानने का कि आरोप का निर्देश उनमें से किसके प्रति है कोई साधन नहीं था और
उसने अपनी कोई प्रतिरक्षा नहीं की। न्यायालय ऐसे तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है
कि छल करने की रीति के उपवर्णन का लोप उस मामले में तात्त्विक गलती थी।
(च) क पर 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की हत्या करने का आरोप
है। वास्तव में मृत व्यक्ति का नाम हैदरबख्श था और हत्या की तारीख 20 जनवरी, 1882 थी। क पर कभी भी एक हत्या के अतिरिक्त
दूसरी किसी हत्या का आरोप नहीं लगाया गया और उसने मजिस्ट्रेट के समक्ष हुई जांच को
सुना था जिसमें हैदरबख्श के मामले का ही अनन्य रूप से निर्देश किया गया था।
न्यायालय इन तथ्यों से यह अनुमान कर सकता है कि क उससे भुलावे में नहीं पड़ा था और
आरोप में यह गलती तात्त्विक नहीं थी।
(ङ) क पर 20 जनवरी, 1883 को हैदरबख्श की हत्या और 21 जनवरी, 1882 को खुदाबख्श की (जिसने उसे हत्या के
लिए गिरफ्तार करने का प्रयास किया था) ह्त्या करने का आरोप है । जब वह हैदरबख्श की
हत्या के लिए आरोपित हुआ, तब उसका
विचारण खुदाबखश की हत्या के लिए हुआ । उसकी प्रतिरक्षा में उपस्थित साक्षी
हैदरबख्श वाले मामले में साक्षी थे। न्यायालय इससे अनुमान कर सकता है कि क भुलावे
में पड़ गया था और यह गलती तात्त्विक थी।
ड प्रक्रिया संहिता की धारा 216 | Section 216 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 216 in
Hindi ] –
न्यायालय आरोप
परिवर्तित कर सकता है—
(1) कोई भी न्यायालय निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी
भी आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन कर सकता है।
(2) ऐसा प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्धन अभियुक्त को पढ़कर सुनाया
और समझाया जाएगा।
(3) यदि आरोप में किया गया परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि
न्यायालय की राय में विचारण को तुरंत आगे चलाने से अभियुक्त पर अपनी प्रतिरक्षा
करने में या अभियोजक पर मामले के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना
नहीं है, तो न्यायालय ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन
के पश्चात् स्वविवेकानुसार विचारण को ऐसे आगे चला सकता है मानो परिवर्तित या
परिवर्धित आरोप ही मूल आरोप है।
(4) यदि परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में
विचारण को तुरंत आगे चलाने से इस बात की संभावना है कि अभियुक्त या अभियोजक पर
पूर्वोक्त रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो न्यायालय या तो नए विचारण का निदेश दे
सकता है या विचारण को इतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, स्थगित
कर सकता है।
(5) यदि परिवर्तित या परिवर्धित आरोप में कथित अपराध ऐसा है, जिसके अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की
आवश्यकता है,
तो उस मामले में ऐसी मंजूरी
अभिप्राप्त किए बिना कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जब तक कि उन्हीं तथ्यों के आधार
पर जिन पर परिवर्तित या परिवर्धित आरोप आधारित हैं, अभियोजन के लिए मंजूरी पहले ही अभिप्राप्त नहीं कर ली गई है।
(1) कोई भी न्यायालय निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी
भी आरोप में परिवर्तन या परिवर्धन कर सकता है।
(2) ऐसा प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्धन अभियुक्त को पढ़कर सुनाया
और समझाया जाएगा।
(3) यदि आरोप में किया गया परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि
न्यायालय की राय में विचारण को तुरंत आगे चलाने से अभियुक्त पर अपनी प्रतिरक्षा
करने में या अभियोजक पर मामले के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना
नहीं है, तो न्यायालय ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन
के पश्चात् स्वविवेकानुसार विचारण को ऐसे आगे चला सकता है मानो परिवर्तित या
परिवर्धित आरोप ही मूल आरोप है।
(4) यदि परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में
विचारण को तुरंत आगे चलाने से इस बात की संभावना है कि अभियुक्त या अभियोजक पर
पूर्वोक्त रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो न्यायालय या तो नए विचारण का निदेश दे
सकता है या विचारण को इतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, स्थगित
कर सकता है।
(5) यदि परिवर्तित या परिवर्धित आरोप में कथित अपराध ऐसा है, जिसके अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की
आवश्यकता है,
तो उस मामले में ऐसी मंजूरी
अभिप्राप्त किए बिना कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जब तक कि उन्हीं तथ्यों के आधार
पर जिन पर परिवर्तित या परिवर्धित आरोप आधारित हैं, अभियोजन के लिए मंजूरी पहले ही अभिप्राप्त नहीं कर ली गई है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 217 | Section 217 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 217 in
Hindi ] –
जब आरोप परिवर्तित
किया जाता है तब साक्षियों का पुन: बुलाया जाना—
जब कभी विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् न्यायालय द्वारा आरोप
परिवर्तित या परिवर्धित किया जाता है तब अभियोजक और अभियुक्त को
(क) किसी ऐसे साक्षी को, जिसकी परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुलाने की या पुनः समन करने की और उसकी ऐसे परिवर्तन या
परिवर्धन के बारे में परीक्षा करने की अनुज्ञा दी जाएगी जब तक न्यायालय का ऐसे
कारणों से,
जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार नहीं है कि, यथास्थिति, अभियोजक या अभियुक्त तंग करने के या
बिलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से ऐसे साक्षी को
पुनः बुलाना या उसकी पुनः परीक्षा करना चाहता है।
(ख) किसी अन्य ऐसे साक्षी को भी, जिसे न्यायालय आवश्यक समझे, बुलाने की अनुज्ञा दी जाएगी।
जब कभी विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् न्यायालय द्वारा आरोप
परिवर्तित या परिवर्धित किया जाता है तब अभियोजक और अभियुक्त को
(क) किसी ऐसे साक्षी को, जिसकी परीक्षा की जा चुकी है, पुनः बुलाने की या पुनः समन करने की और उसकी ऐसे परिवर्तन या
परिवर्धन के बारे में परीक्षा करने की अनुज्ञा दी जाएगी जब तक न्यायालय का ऐसे
कारणों से,
जो लेखबद्ध किए जाएंगे, यह विचार नहीं है कि, यथास्थिति, अभियोजक या अभियुक्त तंग करने के या
बिलंब करने के या न्याय के उद्देश्यों को विफल करने के प्रयोजन से ऐसे साक्षी को
पुनः बुलाना या उसकी पुनः परीक्षा करना चाहता है।
(ख) किसी अन्य ऐसे साक्षी को भी, जिसे न्यायालय आवश्यक समझे, बुलाने की अनुज्ञा दी जाएगी।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 218 | Section 218 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 218 in
Hindi ] –
सुभिन्न अपराधों
के लिए पृथक् आरोप–
(1) प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप
का विवरण पृथक्तत: किया जाएगा:
परंतु जहाँ अभियुक्त व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा, ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट की राय है कि उससे ऐसे व्यक्ति पर
प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा वहां मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के विरुद्ध विरचित सभी या
किन्हीं आरोपों का विचारण एक साथ कर सकता है।
(2) उपधारा (1) की
कोई बात धारा 219,
220, 221 और 223 के उपबंधों के प्रवर्तन पर प्रभाव
नहीं डालेगी।
(1) प्रत्येक सुभिन्न अपराध के लिए, जिसका किसी व्यक्ति पर अभियोग है, पृथक् आरोप होगा और ऐसे प्रत्येक आरोप
का विवरण पृथक्तत: किया जाएगा:
परंतु जहाँ अभियुक्त व्यक्ति, लिखित आवेदन द्वारा, ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट की राय है कि उससे ऐसे व्यक्ति पर
प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा वहां मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के विरुद्ध विरचित सभी या
किन्हीं आरोपों का विचारण एक साथ कर सकता है।
(2) उपधारा (1) की
कोई बात धारा 219,
220, 221 और 223 के उपबंधों के प्रवर्तन पर प्रभाव
नहीं डालेगी।
दृष्टांत
क पर एक अवसर पर चोरी करने और दूसरे किसी अवसर पर घोर उपहति
कारित करने का अभियोग है। चोरी के लिए और घोर उपहति कारित करने के लिए क पर
पृथक्-पृथक् आरोप लगाने होंगे और उनका विचारण पृथक्ततः करना होगा।
क पर एक अवसर पर चोरी करने और दूसरे किसी अवसर पर घोर उपहति
कारित करने का अभियोग है। चोरी के लिए और घोर उपहति कारित करने के लिए क पर
पृथक्-पृथक् आरोप लगाने होंगे और उनका विचारण पृथक्ततः करना होगा।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 219 | Section 219 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 219 in
Hindi ] –
एक ही वर्ष में
किए गए एक ही किस्म के तीन अपराधों का आरोप एक साथ लगाया जा सकेगा–
(1) जब किसी व्यक्ति पर एक ही किस्म के ऐसे एक से अधिक अपराधों
का अभियोग है जो उन अपराधों में से पहले अपराध से लेकर अंतिम अपराध तक बारह मास के
अंदर ही किए गए हैं, चाहे वे
एक ही व्यक्ति के बारे में किए गए हों या नहीं, तब उस पर उनमें से तीन से अनधिक कितने ही अपराधों के लिए एक ही
विचारण में आरोप लगाया और विचारण किया जा सकता है।
(2) अपराध एक ही किस्म के तब होते हैं जब वे भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) या किसी विशेष या स्थानीय विधि की एक
ही धारा के अधीन दंड की समान मात्रा से दंडनीय होते हैं :
परंतु इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जाएगा कि भारतीय
दंड संहिता (1860
का 45) की धारा 379 के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का
अपराध है जिस किस्म का उक्त संहिता की धारा 380 के अधीन दंडनीय अपराध है, और भारतीय दंड संहिता या किसी विशेष या स्थानीय विधि की किसी धारा
के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का ऐसे अपराध करने का
प्रयत्न है,
जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो।
(1) जब किसी व्यक्ति पर एक ही किस्म के ऐसे एक से अधिक अपराधों
का अभियोग है जो उन अपराधों में से पहले अपराध से लेकर अंतिम अपराध तक बारह मास के
अंदर ही किए गए हैं, चाहे वे
एक ही व्यक्ति के बारे में किए गए हों या नहीं, तब उस पर उनमें से तीन से अनधिक कितने ही अपराधों के लिए एक ही
विचारण में आरोप लगाया और विचारण किया जा सकता है।
(2) अपराध एक ही किस्म के तब होते हैं जब वे भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) या किसी विशेष या स्थानीय विधि की एक
ही धारा के अधीन दंड की समान मात्रा से दंडनीय होते हैं :
परंतु इस धारा के प्रयोजनों के लिए यह समझा जाएगा कि भारतीय
दंड संहिता (1860
का 45) की धारा 379 के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का
अपराध है जिस किस्म का उक्त संहिता की धारा 380 के अधीन दंडनीय अपराध है, और भारतीय दंड संहिता या किसी विशेष या स्थानीय विधि की किसी धारा
के अधीन दंडनीय अपराध उसी किस्म का अपराध है जिस किस्म का ऐसे अपराध करने का
प्रयत्न है,
जब ऐसा प्रयत्न अपराध हो।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 220 | Section 220 in The Code Of
Criminal Procedure
[ CrPC Sec. 220 in
Hindi ] –
एक से अधिक
अपराधों के लिए विचारण—
(1) यदि परस्पर संबद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही
व्यक्ति द्वारा किए गए हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर
आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है।
(2) जब धारा 212 की उपधारा (2) में या
धारा 219 की उपधारा (1) में उपबंधित रूप में, आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से
सम्पत्ति के दुर्विनियोग के एक या अधिक अपराधों से आरोपित किसी व्यक्ति पर उस
अपराध या अपराधों के किए जाने को सुकर बनाने या छिपाने के प्रयोजन से लेखाओं के
मिथ्याकरण के एक या अधिक अपराधों का अभियोग है, तब उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया
जा सकता है और विचारण किया जा सकता है।
(3) यदि अभिकथित कार्यों से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि की, जिससे अपराध परिभाषित या दंडनीय हों, दो या अधिक पृथक् परिभाषाओं में आने
वाले अपराध बनते हैं तो जिस व्यक्ति पर उन्हें करने का अभियोग है उस पर ऐसे
अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण
किया जा सकता है।
(4) यदि कई कार्य, जिनमें से एक से या एक से अधिक से स्वयं अपराध बनते हैं, मिलकर भिन्न अपराध बनते हैं तो ऐसे
कार्यों से मिलकर बने अपराध के लिए और ऐसे कार्यों में से किसी एक या अधिक द्वारा
बने किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति पर एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता
है और विचारण किया जा सकता है।
(5) इस धारा की कोई बात भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 71 पर प्रभाव न डालेगी।
(1) यदि परस्पर संबद्ध ऐसे कार्यों के, जिनसे एक ही संव्यवहार बनता है, एक क्रम में एक से अधिक अपराध एक ही
व्यक्ति द्वारा किए गए हैं तो ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में उस पर
आरोप लगाया जा सकता है और उसका विचारण किया जा सकता है।
(2) जब धारा 212 की उपधारा (2) में या
धारा 219 की उपधारा (1) में उपबंधित रूप में, आपराधिक न्यासभंग या बेईमानी से
सम्पत्ति के दुर्विनियोग के एक या अधिक अपराधों से आरोपित किसी व्यक्ति पर उस
अपराध या अपराधों के किए जाने को सुकर बनाने या छिपाने के प्रयोजन से लेखाओं के
मिथ्याकरण के एक या अधिक अपराधों का अभियोग है, तब उस पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया
जा सकता है और विचारण किया जा सकता है।
(3) यदि अभिकथित कार्यों से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि की, जिससे अपराध परिभाषित या दंडनीय हों, दो या अधिक पृथक् परिभाषाओं में आने
वाले अपराध बनते हैं तो जिस व्यक्ति पर उन्हें करने का अभियोग है उस पर ऐसे
अपराधों में से प्रत्येक के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण
किया जा सकता है।
(4) यदि कई कार्य, जिनमें से एक से या एक से अधिक से स्वयं अपराध बनते हैं, मिलकर भिन्न अपराध बनते हैं तो ऐसे
कार्यों से मिलकर बने अपराध के लिए और ऐसे कार्यों में से किसी एक या अधिक द्वारा
बने किसी अपराध के लिए अभियुक्त व्यक्ति पर एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता
है और विचारण किया जा सकता है।
(5) इस धारा की कोई बात भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 71 पर प्रभाव न डालेगी।
उपधारा (1) के दृष्टांत
(क) क एक व्यक्ति ख को, जो विधिपूर्ण अभिरक्षा में है, छुड़ाता है और ऐसा करने में कांस्टेबल ग को, जिसकी अभिरक्षा में ख है, चोर उपहति कारित करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 225 और 333 के अधीन अपराधों के लिए आरोप लगाया जा
सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ख) ख दिन में गृहभेदन इस आशय से करता है कि जारकर्म करे और ऐसे
प्रवेश किए गए गृह में ख की पत्नी से जारकर्म करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 454 और 497 के अधीन आरोपों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ग) क इस आशय से ख को, जो ग की पत्नी है, फुसलाकर
ग से अलग ले जाता है कि ख से जारकर्म करे और फिर वह उससे जारकर्म करता है। क पर
भारतीय दंड संहिता, (1860 का
45) की धारा 498 और 497 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(घ) क के कब्जे में कई मुद्राएं हैं जिन्हें वह जानता है कि वे
कुटकृत हैं और जिनके संबंध में वह यह आशय रखता है कि भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 466 के अधीन दंडनीय कई कूट रचनाएं करने के
प्रयोजन से उन्हें उपयोग में लाए। क पर प्रत्येक मुद्रा पर कब्जे के लिए भारतीय दंड
संहिता की धारा 473 के
अधीन पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ङ) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उसके विरुद्ध दांडिक
कार्यवाही यह जानते हुए संस्थित करता है कि ऐसी कार्यवाही के लिए कोई न्यायसंगत या
विधिपूर्ण आधार नहीं है और ख पर अपराध करने का मिथ्या अभियोग, यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के
लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है । क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 211 के अधीन दंडनीय दो अपराधों के लिए
पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(च) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उस पर एक अपराध करने का
अभियोग यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार
नहीं है। विचारण में ख के विरुद्ध क इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता है कि उसके
द्वारा ख को मृत्यु से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध करवाए । क पर भारतीय दंड
संहिता,
(1860 का 45) की धारा 211 और 194 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(छ) क छह अन्य व्यक्तियों के सहित बल्वा करने, घोर उपहति करने और ऐसे लोक सेवक पर, जो ऐसे बल्वे को दबाने का प्रयास ऐसे
लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में कर रहा है. हमला करने का अपराध
करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की
धारा 147,
325 और 152 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ज) ख, ग और घ
के शरीर को क्षति की धमकी क इस आशय से एक ही समय देता है कि उन्हें संत्रास कारित
किया जाए। क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 506 के अधीन तीनों अपराधों में से
प्रत्येक के लिए पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
दृष्टांत (क) से लेकर (ज) तक में क्रमशः निर्दिष्ट पृथक्
आरोपों का विचारण एक ही समय किया जा सकेगा।
(क) क एक व्यक्ति ख को, जो विधिपूर्ण अभिरक्षा में है, छुड़ाता है और ऐसा करने में कांस्टेबल ग को, जिसकी अभिरक्षा में ख है, चोर उपहति कारित करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 225 और 333 के अधीन अपराधों के लिए आरोप लगाया जा
सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ख) ख दिन में गृहभेदन इस आशय से करता है कि जारकर्म करे और ऐसे
प्रवेश किए गए गृह में ख की पत्नी से जारकर्म करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 454 और 497 के अधीन आरोपों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ग) क इस आशय से ख को, जो ग की पत्नी है, फुसलाकर
ग से अलग ले जाता है कि ख से जारकर्म करे और फिर वह उससे जारकर्म करता है। क पर
भारतीय दंड संहिता, (1860 का
45) की धारा 498 और 497 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(घ) क के कब्जे में कई मुद्राएं हैं जिन्हें वह जानता है कि वे
कुटकृत हैं और जिनके संबंध में वह यह आशय रखता है कि भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 466 के अधीन दंडनीय कई कूट रचनाएं करने के
प्रयोजन से उन्हें उपयोग में लाए। क पर प्रत्येक मुद्रा पर कब्जे के लिए भारतीय दंड
संहिता की धारा 473 के
अधीन पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ङ) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उसके विरुद्ध दांडिक
कार्यवाही यह जानते हुए संस्थित करता है कि ऐसी कार्यवाही के लिए कोई न्यायसंगत या
विधिपूर्ण आधार नहीं है और ख पर अपराध करने का मिथ्या अभियोग, यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के
लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है । क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 211 के अधीन दंडनीय दो अपराधों के लिए
पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(च) ख को क्षति कारित करने के आशय से क उस पर एक अपराध करने का
अभियोग यह जानते हुए लगाता है कि ऐसे आरोप के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार
नहीं है। विचारण में ख के विरुद्ध क इस आशय से मिथ्या साक्ष्य देता है कि उसके
द्वारा ख को मृत्यु से दंडनीय अपराध के लिए दोषसिद्ध करवाए । क पर भारतीय दंड
संहिता,
(1860 का 45) की धारा 211 और 194 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(छ) क छह अन्य व्यक्तियों के सहित बल्वा करने, घोर उपहति करने और ऐसे लोक सेवक पर, जो ऐसे बल्वे को दबाने का प्रयास ऐसे
लोक सेवक के नाते अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में कर रहा है. हमला करने का अपराध
करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की
धारा 147,
325 और 152 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ज) ख, ग और घ
के शरीर को क्षति की धमकी क इस आशय से एक ही समय देता है कि उन्हें संत्रास कारित
किया जाए। क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 506 के अधीन तीनों अपराधों में से
प्रत्येक के लिए पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
दृष्टांत (क) से लेकर (ज) तक में क्रमशः निर्दिष्ट पृथक्
आरोपों का विचारण एक ही समय किया जा सकेगा।
उपधारा (3) के दृष्टांत
(झ) क बेंत से ख पर संदोष आघात करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 352 और 323 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ञ) चुराए हुए धान्य के कई बोरे क और ख को, जो यह जानते हैं कि वे चुराई हुई
संपत्ति हैं,
इस प्रयोजन से दे दिए जाते हैं
कि वे उन्हें छिपा दें। तब क और ख उन बोरों को अनाज की खेती के तले में छिपाने में
स्वेच्छया एक दूसरे की मदद करते हैं। क और ख पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 411 और 414 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वे दोषसिद्ध किए जा सकेंगे।
(ट) क अपने बालक को यह जानते हए आरक्षित डाल देती है कि यह संभाव्य
है कि उससे वह उसकी मत्य कारित कर दे। बालक ऐसे अरक्षित डाले जाने के परिणामस्वरूप
मर जाता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की
धारा 317 और 304 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध की जा सकेगी।
(ठ) क कूटरचित दस्तावेज को बेईमानी से असली साक्ष्य के रूप में इसलिए
उपयोग में लाता है कि एक लोक सेवक ख को भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 167 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध करे। क
पर भारतीय दंड संहिता की (धारा 466 के साथ पठित) धारा 471 के और धारा 196 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध
किया जा सकेगा।
(झ) क बेंत से ख पर संदोष आघात करता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 352 और 323 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ञ) चुराए हुए धान्य के कई बोरे क और ख को, जो यह जानते हैं कि वे चुराई हुई
संपत्ति हैं,
इस प्रयोजन से दे दिए जाते हैं
कि वे उन्हें छिपा दें। तब क और ख उन बोरों को अनाज की खेती के तले में छिपाने में
स्वेच्छया एक दूसरे की मदद करते हैं। क और ख पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 411 और 414 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वे दोषसिद्ध किए जा सकेंगे।
(ट) क अपने बालक को यह जानते हए आरक्षित डाल देती है कि यह संभाव्य
है कि उससे वह उसकी मत्य कारित कर दे। बालक ऐसे अरक्षित डाले जाने के परिणामस्वरूप
मर जाता है। क पर भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की
धारा 317 और 304 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्तत: आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध की जा सकेगी।
(ठ) क कूटरचित दस्तावेज को बेईमानी से असली साक्ष्य के रूप में इसलिए
उपयोग में लाता है कि एक लोक सेवक ख को भारतीय दंड संहिता, (1860 का 45) की धारा 167 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध करे। क
पर भारतीय दंड संहिता की (धारा 466 के साथ पठित) धारा 471 के और धारा 196 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध
किया जा सकेगा।
उपधारा (4) का दृष्टांत
(ड) ख को क लूटता है और ऐसा करने में उसे स्वेच्छया उपहति कारित
करता है। क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 323,
392, और 394 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
(ड) ख को क लूटता है और ऐसा करने में उसे स्वेच्छया उपहति कारित
करता है। क पर भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की
धारा 323,
392, और 394 के अधीन अपराधों के लिए पृथक्ततः आरोप
लगाया जा सकेगा और वह दोषसिद्ध किया जा सकेगा।
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